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और तो और, हजारों लोग वहाँ हिंसा करते हुए बस, कार आदि से गये उसकी अनुमोदना प्रशंसा स्थानकवासी सन्तों ने अखबारों में छपवा कर की। जबकि बस द्वारा आरम्भ समारम्भ कर जाने की तो स्थानकवासी सन्तों को निन्दा - भर्त्सना करनी चाहिए थी। स्थानकवासी सन्तों को उस वक्त यह कहना चाहिए कि आप हिंसा, विराधना, आरम्भ-समारम्भ कर क्यों यहाँ आये ? बस - कार आदि से आना पाप है, अधर्म है। आपको आपके गांव-शहर में बैठकर ही सामायिक-सँवर करना चाहिए, इसमें ही धर्म है। फिर कभी इस प्रकार का पाप नहीं करना चाहिए, और जो पाप हो गया है उसका आपको प्रायश्चित कर लेना चाहिए । इत्यादि ।
स्थानकवासी सन्तों द्वारा ध्वज-वन्दन
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कुछ वर्ष पूर्व स्थानकवासी आचार्य श्री आनन्दऋषिजी म. की निश्रा में पूना (महाराष्ट्र) में एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया था। करीब 300-400 सन्त - साध्वियों व 1 लाख जितने श्रावक-श्राविकाएँ वहां इकट्ठे हुए थे। कई दिनों तक सम्मेलन
चला था ।
इतने सारे लोगों के खाने-पीने आदि में बहुत आरम्भ - समारम्भ तथा हिंसा हुई थी। आने वाले भक्तों ने धर्म के नाम पर रात्रि - भोजन तथा अभक्ष्य मिठाइयाँ बहुत प्रेम से खायी थीं ।
इतनी सारी हिंसा - अधर्म होने पर भी एक भी स्थानकवासी सन्त या सती ने इस पाप कार्य का विरोध नहीं किया था, किन्तु उपदेश देकर इन्होंने खर्च के लिए लाखों रुपये इकट्ठे करवाये थे । क्या रुपये देने वालों ने रुपये पाप समझकर दिये थे या धर्म समझकर ? क्या रुपये इकट्ठा करने के लिए स्थानकवासी सन्तों ने ऐसा उपदेश दिया कि 'सम्मेलन का यह एक महा पापकारी, हिंसाजन्य, आरम्भ-समारम्भ का सावद्य कार्य है, इसके लिए आप
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