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मूल तत्त्व
श्रावण सुदि ४
दया ....
सूक्ष्मबुद्धि से जब धर्म पर विचार करते हैं तब ध्यान में आता है कि धर्म विश्व को शान्ति देता है। किसी भी जीव को पीडा देना धर्म नहीं है। अहिंसा आदि कि उपासना ही भगवान् की उपासना है।
दया धर्मका मूल है, पाप मूल अभिमान, तुलसी दया न छोडिये, जब लग घटमें प्राण।
धर्म का मूल दया है, दया धर्म की माता है, पाप का मूल अभिमान है। तुलसीदासजी इस प्रकार कहते हैं कि जब तक आत्मा में प्राण है तब तक धर्म नहीं छोड़े ।
धर्म के मूल तत्त्व हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, निष्परिग्रहता। ये पाँचों तत्त्व महत्व के हैं। साधु धर्म के ये पाँच महाव्रत हैं। अहिंसा ....
सम्पूर्ण भारतवर्ष के भीतर पतञ्जलि रचित योग ग्रन्थ प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ में इन पाँच तत्त्वों की व्याख्या बहुत सुन्दर पद्धति से की गई है। जिसकी अहिंसा की साधना पराकाष्ठा तक पहुँची हो उस व्यक्ति के सामने जाते ही दूसरे मनुष्यों के समस्त वैर विकार नष्ट हो जाते हैं। वैर भावना भी दूर हो जाती है। अगर समागम मात्र से इन दूषणों से बच जाते हों, तो जीवन में अहिंसा का समावेश हो जाए तो यह जीवन कितना पवित्र बन जाए।
भगवान् महावीर की अहिंसा की साधना पराकाष्ठा पर पहुँची हुई थी। इसीलिए उनके समवसरण में बाघ और बकरी एक साथ बैठते थे।