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________________ ७३ गुरुवाणी-१ ___ गुरु - अपरिश्रावी परम्परा चली तो पूर्ण समुदाय समाप्त हो जाएगा। वे गीतार्थ गुरु समस्त साधुओं को इकट्ठा करते हैं और उनके समस्त एक दृष्टांत रखते हैं। एक नगर में एक मनुष्य रहता था। वह अग्निदेव का भक्त था। अग्निदेव को प्रसन्न करने के लिए वह प्रतिदिन कुछ न कुछ जलाकर अग्निदेव को तर्पण करता था। किसी दिन वह घास का पूला जलाता था तो किसी दिन जीर्ण-शीर्ण मकान आदि भी। राजा भी उसकी अग्निदेव के प्रति भक्ति देखकर उसको प्रोत्साहित करता था। अन्त में एक दिन ऐसा आया कि उसने एक झोंपड़ी में आग लगाई। तेज हवा चली, आग काबू में नहीं आई, आस-पास का सारा महोल्ला जलकर साफ हो गया। इस उदाहरण को देकर गीतार्थ गुरु महाराज कहते हैं- शिष्यों को दोषों का प्रायश्चित देने के स्थान पर आप प्रतिदिन उनके पाप को प्रोत्साहित करते हो। आज एक शिष्य करेगा, दूसरे दिन दूसरा शिष्य भी वही पाप करेगा। पूर्वोक्त उदाहरण के अनुसार सारा महोल्ला जलकर राख हो गया था उसी प्रकार तुम्हारा पूर्ण समुदाय समाप्त हो जाएगा। इस प्रकार सूक्ष्मबुद्धि वाले गीतार्थ गुरु महाराज ने सामान्य बुद्धिधारक साधु महाराज को बोध दिया। आत्मा यह परमात्मा है। इस कारण हम किसी भी प्रकार का दोषजनित कार्य करेगें, उसी समय भीतर से आवाज उठेगी कि यह तू गलत कर रहा है। हम हृदय की आवाज को बाहर आने भी नहीं देते, भीतर ही भीतर दबा देते हैं। ऐसी प्रामाणिकता व्यर्थ है.... एक मनुष्य ने कहा- व्याख्यान श्रवण करने के लिए आने वाले सभी मनुष्य बहुत ही प्रामाणिक होते हैं । उसी समय किसी भाई ने पूछा- भाई! यह कैसे? पहला मनुष्य कहता है- भाई देखो, घर में रत्नों के ढेर पड़े हों, बहुमूल्य आभूषण इधर-उधर पड़े हों ऐसी स्थिति में घर में कोई मनुष्य भीतर आ जाए और इन वस्तुओं पर नजर डाले बिना वापस लौट जाए तो उसे हम क्या कहेंगे? प्रामाणिक
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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