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________________ ७२ गुरु - अपरिश्रावी गुरुवाणीस्थान पर वह क्रोध में आकर बोलता है- क्या वह मेंढकी मरी हुई पड़ी थी या मेरे पैरों से मरी थी? सान्ध्यकालीन प्रतिक्रमण के समय छोटा साधु पुनः याद दिलाता है। गुरुजी आपके पैरों से मेंढकी मर गई थी- इस पाप का स्मरण कराता है। शिष्य की बात सुनकर क्रोधावेश में शिष्य को मारने के लिए दौड़ता है, बीच में खम्भा आ जाता है और उसका सिर उससे टकराता है। अकस्मात् ही मौत हो जाती है। क्रोध की दशा में मरने के कारण वह चण्डकौशिक नाग बनता है। भूल स्वीकार करना कितना कठिन है? यह इस उदाहरण से समझ में आ जाएगा। आलोचना प्रदान करने वाले गुरु को शास्त्रों में अपरिश्रावी कहा गया है। मिट्टी के घड़े में रखा हुआ पानी रिसता रहता है किन्तु तांबे के घड़े में रहा हुआ पानी एक बिन्दु भी रिसकर बाहर नहीं आता है। उसी प्रकार दोषों को सुनने वाले आचार्य महाराज भी तांबे के घड़े के समान होने चाहिए। डॉक्टर शल्य चिकित्सा कर व्याधि को बाहर निकाल देता है, उसी प्रकार आलोचना मन में रहे हुए पापों को बाहर निकाल देती है। प्रतिक्रमण में देवसिअं आलोउं? यह पाठ आता है। इस प्रकार पूर्व युग में शिष्य दिन के भीतर हुए स्वयं के दोषों को गुरु महाराज के समक्ष निवेदन पूर्वक कहते थे। आलोचना - सूक्ष्मबुद्धि से .... एक गांव के उपाश्रय में कितने ही साधुगण विराजमान थे। वहाँ किसी गीतार्थ गुरु महाराज का पदार्पण होता है। रात्रि प्रतिक्रमण के समय एक के बाद एक साधुगण गुरु महाराज के पास आकर आलोचना मांगते हैं। गुरु महाराज ज्ञानी/गीतार्थ नहीं थे। इसी कारण वे शिष्यों को कहतेवाह! ये शिष्य कितने सरल हैं? जो स्वयं के समस्त दोषों को कह देते हैं। इसी प्रकार वे साधुगण प्रतिदिन वही की वही भूल करते और गुरु महाराज के पास आकर आलोचना मांगते । इस प्रकार दो-तीन दिन प्रसंग चला। गीतार्थ गुरु महाराज यह दृश्य देखते हैं और सूक्ष्मबुद्धि से विचार करते हैं- इस प्रकार दोषों का प्रायश्चित्त तो हो ही नहीं सकता। यही
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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