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धर्म
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गुणात्मक है
श्रावण सुदि २
गगन मण्डप में गाय की प्रसूति
भगवान् की हृदय से सच्ची भक्ति करने पर, उसके साथ तादात्म्य / सम्बन्ध जोड़ने से सच्चे धर्म की प्राप्ति होती है । उत्तम कुल मिलता है । उत्तम संस्कार मिलते हैं। उसके कारण मनुष्य के हृदय में धर्म करने की प्रवृत्ति जाग्रत होती है । परन्तु, वह धर्म उच्च कोटि का है अथवा धर्म का आभास मात्र है? यह प्रश्न खड़ा होता है ।
आनन्दघनजी महाराज कहते है - मैं उसी को गुरु मानता हूँ जो मुझे इस बात का सत्य उत्तर प्रदान करता है ।
गगनमंडन में गौआ वीआणी, धरती दूध जमाया। माखण तो कोई विरला पाया, छाशे जगत भरमाया ॥ अर्थात् आकाश में गाय की प्रसूति हुई, जमीन पर उस के दूध का दही जमाया गया, उस दही में से मक्खन तो किसी विरले मनुष्य ने ही प्राप्त किया। और सारा विश्व तो छाछ से ही भ्रमित होता रहा ।
भगवान् देशना देते हैं, उस समय वे समवशरण में विराजमान होते हैं । भगवान् की वाणी को आनन्दघनजी महाराज गगनमंडन में गौआ वीयाणी ऐसी उपमा देते हैं। उनका वाणी रूप दूध पृथ्वी पर गिरता है किन्तु उसमें से मक्खन रूपी तत्त्व गिनीचुनी आत्माएं ही प्राप्त करती हैं। शेष सम्पूर्ण विश्व तो छाछ के समान क्रियात्मक धर्म में ही भ्रमित होता रहता है।
वर्ण-व्यवस्था.
अधिकांशतः लोग संसार को मधुर बनाने के लिए धर्म करते हैं । सम्पूर्ण जगत् दुःखभीरु है। मनुष्य जब पापभीरु बनता है तब ही वह धर्म का सच्चा स्वरूप समझ पाता है, ऐसा कहा जाएगा।