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गुरुवाणी-१
धर्म की योग्यता है। पशु जीवन में तो धर्म की शक्यता ही नहीं है। मानव जीवन में भी दो-चार प्रतिशत को धर्म श्रवण की रुचि होती है । २१ गुणों से सम्पन्न व्यक्ति ही धर्म करने के योग्य होता है। २१ गुण.... १. अक्षुद्र - शूद्र न हो, अर्थात् बचकानापन न हो। २. रूपवान् - पाँचों इन्द्रियों से परिपूर्ण हो।
प्रकृति सौम्य - स्वभाव से शान्त और नम्रप्रिय हो। लोकप्रिय - जनता में प्रिय हो। धर्मी मनुष्य अधिकांशतः लोगों में प्रिय होता है। अक्रूर - निष्ठर न हो, दयालु हो। पापभीरु - पाप से भय खाने वाला हो। अशठ - कपट रहित हो, धूर्त न हो। दाक्षिण्य - प्रतिष्ठायुक्त हो, आँखों की शर्म से भी आदमी सुधर सकता है। लज्जालु - लज्जायुक्त हो। मैं यदि ऐसा-वैसा काम करूंगा तो मुझे लोग खराब की दृष्टि से देखेंगे। शास्त्रकारों ने लज्जा को गुणों
की माता कहा है। शर्म वाला हो। १०. दयालु - दया धर्म की माता है अर्थात् दया सम्पन्न हो। ११. मध्यस्थ - पक्षपाती न हो, साम्य दृष्टि वाला हो।
गुणानुरागी - गुणों का अनुरागी हो, सब लोग दूसरों के दोष ही देखते हैं, गुण ग्रहण करने वाले विरले ही होते है। सत्कथा - सत्संग वाला हो, अच्छी मण्डली हो और जब देखें
तभी धर्म कथा करने वाला हो। १४. सुपक्ष युक्त - आस-पास रहने वाले सभी लोग सुसंस्कारी हों।
क्योंकि जैसी संगति होती है वैसा ही प्रभाव पड़ता है। १५. विशेषज्ञ - विशिष्ट रूप से धर्म का जानकार हो।