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धर्म की योग्यता
श्रावण वदि अमावस्य
संसार में सब दुःखी हैं ....
सभी लोग मनुष्य के सुख में भागीदार बनने के लिए आते हैं, क्य ये लोग दुःख में भी भागीदार बनने के लिए आते हैं? अरे ! दुःख आने पर सगा भाई भी दूर हो जाता है। संसार का ऐसा स्वरूप आँखों से देखते हुए भी मनुष्य इसी में आसक्त रहता है, क्योंकि वाणी श्रवण करने के पश्चार भी वह चिन्तन नहीं करता है। जब मनुष्य को इस संसार से विरक्ति हं जाएगी तभी संसार की यह घटमाला पूर्ण होगी। श्रीहेमचन्द्राचार्य कह हैं- तू दूसरों की अवस्था देखकर दुःखी होता है। अहा! बेचारे कित पीडित हैं? इस प्रकार बोलता है, परन्तु यह विचार नहीं आता कि जिस प्रकार की इनकी दुर्दशा है, वैसी मेरी भी होने वाली है। गुणी ही धर्म के योग्य है .....
जो मनुष्य गुणों से दरिद्र होता है अर्थात् गुणरहित होता है वह धर्म के योग्य नहीं होता। वह सामान्य धर्म करता भी है किन्तु विशिष्ट कोटि का धर्म उसके हस्तगत नहीं होता। गुणों के साथ ही धर्म गुंथा हुआ है। आज अर्थसम्पन्न मनुष्य ऐसा मानता है कि उसे धन करने की क्या आवश्यकता है? जो गरीब, अनाथ, साधनरहित होते है उन्हीं के लिए धर्म है। ठीक है न । सामान्यतया अर्थसम्पन्न मनुष्य के जब धर्म श्रवण की इच्छा नहीं होती तो देवलोक में सुख भोगते हुए देवो को कहाँ से हो सकेगी? यदि कदाचित् कोई पूर्व का आराधक देव हो और उसे श्रवण करने की इच्छा हो तो उसे कितनी दूरी को लांघकर आना पड़ता है । इसलिए महापुरुष कहते हैं कि, जो धर्म सामग्री मनुष्ट भव में प्राप्त हुई है वह सामग्री किसी अन्य लोक में मिलने वाली नह