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श्रवण परिवर्तन करता है .
श्रावण वदि १३
जाना जरूर है ....
जीवात्मा को यह विचार करना है कि यह संसार एक विशाल समुद्र है। इस समुद्र में अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं और मृत्यु को प्राप्त करते हैं। पानी की एक बूंद में भी असंख्यात जीव जन्म लेते हैं और मरते हैं। देवों को भी दुर्लभ ऐसा यह मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी हम इसकी दुर्लभता को समझ नहीं पाये हैं । हमनें जहाँ जन्म लिया है वहाँ मृत्यु भी अनिवार्य है। यह कलेवर (शरीर) अपने स्वामित्व का नहीं है, किराये का है। मालिक जब भी आदेश देगा हमें इसे छोड़कर जाना ही पड़ेगा। फिर क्यों न दीवाली हो या पर्युषण पर्व हो। उसका आदेश होने के बाद एक सैकण्ड अथवा क्षण मात्र भी उसमें रह नहीं सकते। खाली करने में। छोड़ देने में ही भलाई है। इस चिंतन की भूमिका से श्रवण करें तभी वह हृदय में उतरता है। इसीलिए शास्त्रकारों ने तीन भूमिका बतलाई है
१. श्रवण, २. मनन-चिन्तन, ३. निदिध्यासन (तन्मयता) श्रवण करने के पश्चात् उसका मनन-चिन्तन करो और फिर उसमें तन्मय बनो। केवल श्रवण पानी होता है .... ___इस समय हमारा सारा समाज श्रवणप्रेमी है। चिन्तन का नामोनिशान भी नहीं है। चाहे जैसी बहुमूल्य से बहुमूल्य साड़ी हो किन्तु वह है तो वस्त्र/चीथड़ा ही है न? यह समस्त आभूषण पृथ्वीकाय के कलेवर हैं या अन्य कोई? हम जिन पदार्थों पर चिपके हुए हैं, उन पदार्थों से जब हमारा आकर्षण कम हो जाएगा तब उसका मूल्य भी कम हो जाएगा। यह सारा संसार मूल्यहीन पदार्थों से भरा हुआ है।