________________
गुरुवाणी-१
४१
धर्म-मंगल होने पर भी हम स्वयं स्वर्णमय क्यों नहीं बने? क्योंकि उस वास्तविक धर्म का हमने स्पर्श ही नहीं किया। धर्म और हमारे बीच में संसार की आधि, व्याधि, उपाधि रूपी जाले चारों और फैले हुए हैं। आज परिग्रह के लिए भगवान् और धर्म को छोड़ते हुए भी हमें समय नहीं लगता। जिसने भगवान् की रात-दिन सेवा की है और मंदिर की प्रतिष्ठा कैसे बढ़े इसकी चिंता निरन्तर करते रहते हैं वे ही लोग आज नई हवा चलने पर अपनी जन्मभूमि को कुछ ही क्षणों में छोड़ देते हैं, क्योंकि दूसरे स्थान पर अर्थोत्पादन अधिक होता है। धन के लिए प्रभु को भी छोड़कर चले जाते हैं। आज गांवों की दशा देखो, अधिकतर गांवो में भगवान् को पुजारी के अधीन कर दिया है और बहुत से गांवों में मंदिरों की सार-संभाल करने वाला कोई नहीं है। ऐसा अपनी अनुकूलता के अनुसार हो तो धर्म कैसे सुख दे सकता है?
STRAPH
- श्रावक की व्याख्या - 11) संस्कृत में 'नाम की धातु है उसको 'णक् प्रत्यया लगाने से उसकी वृद्धि | श्रुणिक - श्रु+अक्-श्री अक्-श्रावक, पृणोति इति
श्रावकः, जो सर्वदा जिनवाणी का ही श्रवण करता हो. वह श्रावक कहलाता है। (2) जिसमें श्रद्धा, विनट और क्रिया थे तीनों वस्तुएँ जब एकत्रित होती है तब वह श्रावक कहलाता है।