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________________ गुरुवाणी - १ धर्म-मंगल ३९ ल इसका अर्थ है- लालयति सुखे अर्थात् सुखों में लालनपालन कराने वाला। दुसरी इच्छा पूर्ण हुई और सुख भी मिल गया, किन्तु उस सटोरिये के सुख जैसे सुख का क्या करना है ? जो आज सट्टे में लाखों रुपये कमाए और कुछ ही दिनों में लाखों रुपये हार भी गए, ऐसे क्षणिक सुख का क्या करना? इसलिए मनुष्य की तीसरी इच्छा होती है कि प्राप्त सुख सदा के लिए रहे। इस प्रकार मंगल शब्द में ऐसी अपूर्व शक्ति होती है, पहले दुःख दूर कर सुख प्रदान करता है और उस सुख में मनुष्यों का पालन करता है। यह मंगल शब्द की निरुक्ति हुई । व्युत्पति अर्थात् मां गालयति पापात् मुझे पाप से छुड़ाने वाला । इन चारों मंगलों में भाव मंगल ही सर्वोत्कृष्ट मंगल है। प्रारम्भ के नाम, स्थापना, द्रव्य इन तीनों मंगलों से मंगल हो या नहीं हो, किन्तु भाव मंगल से परमात्मा के साथ अभिन्न सम्बन्ध बन जाए वही सच्चा मंगल कहलाता है। पारसमणि.. | धर्म पारसमणि के समान है । पारसमणि के स्पर्श से लोहखण्ड भी सोना बन जाता है । एक सन्त पुरुष थे । उनके पास एक पारसमणि था। उस संत को उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु किसी ने उनको भेंट स्वरूप प्रदान की थी इसलिए पारसमणि को लोहे की डिब्बी में रखकर स्वयं प्रभु के भजन में तन्मय रहते थे । एक समय उस संत की सेवा करने के लिए एक मनुष्य आया । दीन-दु:खियों का उद्धार करने में वह संत सर्वदा तत्पर रहता था । सेवा में आगत मनुष्य दुःखी नहीं था किन्तु असंतोषी / लोभी था । उसको तो धन के भंडार भरने थे। एक समय संत ने उसकी सेवा से प्रसन्न होकर कहा- जा बच्चा, तेरा कल्याण हो जाएगा, किन्तु उस सेवक को तो कल्याण की आवश्यकता नहीं थी । वह तो सोने का भंडार चाहता था। उसने संत को कहा- मुझे तो सोना, धन चाहिए। सारा जगत् सोने के पीछे पागल बना हुआ है । कहा जाता है --
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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