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________________ धर्म-मंगल श्रावण वदि७ मंगल की व्याख्या .... मनुष्य कोई भी कार्य प्रारम्भ करने के पूर्व मंगल वाक्यों से प्रारम्भ करता है, यह किस लिए? क्योंकि मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन मंगल पर आधारित है, रचित है। प्रारम्भ में मंगल वाक्य देने से कोई भी कार्य निर्विघ्नता के साथ पूर्ण होता है। मंगल चार प्रकार के हैं- १. नाम मंगल, २. स्थापना मंगल, ३. द्रव्य मंगल, ४. भाव मंगल।। नाम मंगल - किसी का नाम मंगल स्वरूप होता है स्थापना मंगल - कुम्भ, घड़ा, आकृति आदि द्रव्य मंगल - लोक में औपचारिक रूप से दही, गुड़ आदि भाव मंगल - परमात्मा के साथ तादात्म्य सम्बन्ध मंगल शब्द की व्याख्या शास्त्रकारों ने दो प्रकार से की है। अक्षरों को तोड़कर की हुई व्याख्या को निरुक्त कहते हैं और धातु आदि जोड़कर जो व्याख्या की जाती है उसे व्युत्पत्ति कहते हैं । जैसे- हिन्दु शब्द है-हि अर्थात् हिंसा, और दू याने दूर रहने वाला, हिंसा से दूर रहने वाला हिन्दू कहलाता है इसे निरुक्त कहते हैं। मं इसका अर्थ है- मनाति विनानि अर्थात् जो समस्त विघ्नों का मंथन कर देता है। मनुष्य जब दुःख में होता है, तो उसकी सर्वप्रथम इच्छा क्या होती है? बस, मेरा दुःख दूर हो यही इच्छा होती है। मंगल में अपूर्व शक्ति है कि वह विघ्न रूपी भयंकर पर्वतों को भी चूर्ण-चूर्ण कर देता है। गइसका अर्थ है- गमयति सुखम् अर्थात् सुख की ओर ले जाने वाला। पहली इच्छा पूर्ण होने पर बाद में इच्छा होती है कि अब मुझे सुख प्राप्त हो। मंगल में समस्त सुखों को प्रदान करने की शक्ति है।
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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