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________________ रुडी ने रढियाळी रे ३७ गुरुवाणी - १ नहीं, नगर में यह ढिंढोरा पिटवाते हैं, घोषणा करवाते हैं कि थावच्चापुत्र दीक्षा ग्रहण करने जा रहे हैं, जिस किसी को भी इस मार्ग पर जाना हो प्रसन्नता से जा सकता है। उसके पीछे से उसके परिवार का भरण-पोषण मैं करूंगा। इस घोषणा से प्रभावित होकर एक हजार मनुष्य भी दीक्षा लेने को तैयार होते हैं। सबके साथ दीक्षा ग्रहण करता है और अन्त में एक हजार शिष्यों के साथ थावच्चापुत्र का शत्रुंजय तीर्थ पर मोक्ष होता है । पहले के जीव लघुकर्मी थे। एक देशना सुनने मात्र से ही संसार छोड़ने के लिए तैयार हो जाते थे । द्रव्य रूपी जवाहरात दुःखों से मुक्त नहीं कर सकते अथवा सुख प्रदान नहीं कर सकते, बल्कि आपत्तियों को खींच कर लाते हैं और दुःख के गर्त में डूबा देते हैं। जबकि धर्म रूपी जवाहरात समस्त दुःखों से मुक्त कराते हैं और अन्त में मोक्ष सुख प्रदान करते हैं। गुरुतत्त्व का महत्त्व . देवतत्त्व और धर्मतत्त्व को समझाने वाले गुरु होते हैं । देवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन । देव रुष्ट हो गये तो गुरु बचा लेंगे परन्तु यदि स्वयं गुरु रुष्ट हो गये तो कोई भी बचा नहीं सकता। गुरुतत्त्व के द्वारा समस्त गुणों की प्राप्ति हो सकती है। तीर्थङ्कर परमात्माओं का यह सम्पूर्ण शासन गुरुतत्त्व पर ही चल रहा है क्योंकि तीर्थंकर भगवान् स्वयं कितने समय तक शासन कर सकते हैं? जगत् में तीन तत्त्व महान् हैं । देवतत्त्व, गुरुतत्त्व और धर्मतत्त्व - ये तीनों ही तत्त्व यदि जीवन के साथ जुड़ जाएँ तो जीवन धन्य बन जाए । तृष्णा सदा बढ़ती ही है यह कभी घटती नहीं है। सदा घटने वाली वस्तु है आयुष्य । त्याग कठिन नहीं है किन्तु उसके लिये ज्ञान प्रात करना कठिन है ।
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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