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________________ रुडी ने रढियाळी रे गुरुवाणी-१ माता को कहता है- माताजी! मुझे संयम लेना है। पुत्र के मुख से संयम शब्द सुनते ही इसकी माता मूर्छित हो गई। क्योंकि, यह सारा ऐश्वर्य और वैभव पुत्र के लिए तो उसने संचित किया था। करोड़ो की सम्पत्ति थी, एक ही पुत्र था। मूर्छा दूर होने पर वह अपने पुत्र को समझाती है- पुत्र! संयम अत्यन्त दुष्कर है। पुत्र! साधु जीवन में बाईस परिषह सहन करने पड़ते हैं। पुत्र कहता है- माता! संसार में तो बाईस से अधिक परिषह हैं। उन पर विजय प्राप्त करना उससे भी कठिन है। आत्मा में ही परमात्मा का निवास है। माता और पुत्र के बीच में संवाद चलता है और अन्त में पुत्र ही विजयी होता है। माँ थककर कृष्ण महाराज के पास पहुंचती है। कृष्ण पूछते हैं- सेठानी! कैसे आना हुआ? थावच्चा कहती है, मेरे पास अखूट सम्पत्ति है। मेरा पुत्र संयम ग्रहण करने के लिए तैयार हो गया है, आप उसे किसी प्रकार समझाइये। कृष्ण महाराज थावच्चापुत्र को समझाते हुए कहते हैं- हे भाई! तुझे क्या दुःख है? तेरे पास सब कुछ है, तेरे मन में किसी प्रकार की आशंका या डर हो तो उसे निकाल फैंक। तेरे ऊपर तो मैं नाथ/स्वामी के रूप में बैठा हुआ हूँ। थावच्चापुत्र कहता है- महाराज! देखिए, मैं आपकी बात स्वीकार करने को तैयार हूँ। आप यदि मेरी इतनी जिम्मेदारी ले लें- मेरा मृत्यु से रक्षण करें, जरा से रक्षण करें, जन्म से रक्षण करें। बोलिए क्या आप इसके लिए तैयार हैं? तब कृष्ण महाराज कहते हैं- भाई! मृत्यु से तो मैं अपना भी रक्षण नहीं कर सकता तो दूसरे का रक्षण कैसे करूंगा? थावच्चापुत्र कहता है- महाराज मेरे तो स्वामी ऐसे हैं जो आधि-व्याधि-उपाधि सब से रक्षण कर सकते हैं। मैने तो ऐसे स्वामी की ही शरण स्वीकार की है। बस आप तो मुझे अपने मार्ग पर जाने की आज्ञा दें। कृष्ण महाराज वार्तालाप से यह अनुभव करते हैं कि यह समझ करके वैराग्य भाव से ही दीक्षा ग्रहण कर रहा है, इसको इस मार्ग से दूर रखना सम्भव नहीं है। अतः कृष्ण महाराज उसे आज्ञा प्रदान करते हुए कहते हैं- दीक्षा का वरघोड़ा/महोत्सव मेरी तरफ से होगा। इतना ही
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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