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धर्म-भावशुद्धि
गुरुवाणी - १
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ने जैसा गुड़ दिया है, वह अच्छा ही होगा। उस गुड़ को लेकर वह अपने घर आई और हलवा बनाया । खाते समय उस हलवे में बारम्बार कंकर आने लगे, देखा तो वह गुड़ कंकर वाला ही था। मावजी भाई उठकर के शीघ्र ही लवजी भाई की दुकान पर गये और गुड़ वापिस लेने के लिए कहा। लवजी भाई गुस्से में तड़ककर बोले- भाई ! मैं यहाँ व्यापार करने बैठा हूँ, तेरा गुड़ नाली में फेंक दे। यदि इसी प्रकार वस्तुओं का मैं परिवर्तन करता रहा, तो मेरा व्यापार ठप्प हो जाएगा। यह सुनकर मावजी भाई तो स्तब्ध हो गये । अरे, धर्म की बड़ी-बड़ी बाते करने वाले लवजी भाई कहाँ और कहाँ उनका यह व्यवहार? जिसकी नींव ही न हो उसको धर्म कैसे कह सकते है? धर्म करने वाला नीतिमान होना चाहिए। धर्म का पहला लक्षण है मैत्री अर्थात् परहित चिंता । दूसरा लक्षण है दूसरों को सुखी देखकर प्रमुदित होना। तीसरा लक्षण है कारुण्य अर्थात् दूसरों के दुःख को देखकर मन द्रवित हो उठे । चौथा लक्षण है माध्यस्थ्य अर्थात् उपेक्षा भाव ।
भाव का प्रभाव ....
एक राजा था। अकेला ही घूमने के लिए निकलता है । बहुत जोर की प्यास लगती है । फिरता फिरता किसी खेत में चला जाता है। पहले के समय में जनता सुखी है या दुःखी इसकी जानकारी लेने के लिए राजा स्वयं ही सामान्य वेश पहन कर अकेला ही निकल पड़ता था । प्रजावत्सल राजा थे और गुप्त रीति से प्रजा के सुख-दुःख को जानने का प्रयत्न करते थे। खेत में जाकर राजा ने घोड़े को खड़ा किया, वहाँ एक झोंपड़ी थी राजा ने किसान को कहा- भाई प्यास लगी है पानी पिलाओ। यह खेत गन्ने का था। सांठे से रस निकालकर राजा को दिया। राजा तो पीकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। राजा ने किसान को पूछा- भाई, कैसी कमाई हो रही है ? किसान ने सर्वस्वभाव से कहा- भाई, राजा की कृपा से इसमें हमें बहुत कुछ मिलता है। किसान की बात सुनकर राजा का मन डांवाडोल
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