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________________ १४ हम कहाँ? गुरुवाणी-१ दूसरा नम्बर अधम मनुष्य का आता है। ये अधम मनुष्य ऐसी प्रकृति के होते हैं कि वे अपने इस लोक को तो नहीं बिगाड़ते, क्योंकि उनका सारा व्यवहार इस लोक में सुख के लिए होता है, उनके समक्ष परलोक के सुख की कोई धारणा नहीं होती। ऐसे मनुष्य को यदि कहा जाता है- भाई! परमात्मा की कुछ उपासना करोगे तो परलोक में तुम सुखी हो जाओगे। अधम मनुष्य तत्काल ही उत्तर देंगें- इन बातों को छोड़ो, इस लोक की बात यहाँ करो, परलोक की बात परलोक में करेंगे। तीसरे नम्बर के मनुष्य विमध्यम होते हैं । विमध्यम दोनो लोकों का विचार करते हैं। इस लोक मे भी कीर्ति प्राप्त करते हैं और परलोक के लिए भी धर्म की आराधना करते हैं। चौथे नम्बर के मनुष्य मध्यम कोटि के होते है। ये मध्यम परलोक के सुख की ही इच्छा रखते हैं। पाँचवे नम्बर के प्राणी उत्तम कहलाते हैं। ये उत्तम कोटि के मनुष्य इस लोक और परलोक के सुख की चिन्ता नहीं करते हैं। वे तो सांसारिक जीवन को ही बंधन रूप मानते हैं। इनकी सर्वदा यह प्रवृत्ति रहती है कि भोगसुखों से जल्दी से जल्दी मुक्त हो जाएं। उत्तम प्रकृति के मनुष्य सर्वदा स्वयं मे रहे हुए दुर्गुणों का ही अवलोकन करते हैं । इनको स्वयं की प्रशंसा बिच्छु के डंक के समान लगती है। मोक्ष अर्थात् जीवन में रहे हुए समस्त दुर्गुणों का नाश करना और उनके नाश करने के लिए सर्वदा प्रयत्नशील रहते हैं। छठे नम्बर के जीव उत्तमोत्तम कहलाते हैं। अरिहन्त परमात्मा इस कोटि में आते हैं। उनकी विचारधारा यही रहती है कि जगत् के समस्त जीव कल्याण को प्राप्त हों। ये अरिहन्त निर्वाण के पूर्व अन्तिम समय तक विश्व के समस्त प्राणियों के कल्याण के लिए उपदेश देते हैं। हमें अपना सम्बन्ध उत्तम अथवा उत्तमोत्तम कोटि के मनुष्यों के साथ जोड़ना है, अधमाधम के साथ नहीं। क्या आप जानते हैं कि भगवान् ने हमें उच्च
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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