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________________ गुरुवाणी-१ धर्म - जीवनशुद्धि बनते हैं किन्तु प्राणियों के रक्षण के लिए किसी भी प्रकार के नियम हैं? इन जीवों की कत्ल/हत्या होती है तो क्या वे जीव बोल सकते हैं? इन मूक प्राणियों के स्थान पर यदि हम होते तो कभी के त्राहिमाम्त्राहिमाम् पुकार उठते। यह मनुष्य जन्म दुर्लभ हैं, इन शब्दो को सुनते सुनते हम अत्यधिक ढीठ हो गये हैं, कान भी घिस गये हैं, हमें किसी भी दिन यह विचार नहीं आता है कि हम किस दुर्लभ योनि में रह रहे हैं। हमें तो इस दुर्लभता का ध्यान ही नहीं आता है। हम तो यह समझते हैं कि अनन्त काल तक हमें यहीं रहना है। मृत्यु ने हमारे बाल पकड़ रखे हैं और घसीट कर हमें ले जा रहा है ऐसा दृश्य यदि हमारी आँखों के सामने खड़ा हो जाए तो हमारा मन धर्म करने की ओर अवश्य ही प्रेरित हो जाता। श्री वस्तुपाल की जागृति . . . . गुजरात के महामन्त्री वस्तुपाल-तेजपाल कैसे समृद्धि और शौर्य सम्पन्न थे! एक समय महाराष्ट्र के राजा के साथ युद्ध हुआ। राजा ने कहलवाया- 'वस्तुपाल! तू वणिक् पुत्र है, हम तुझे समाप्त कर देंगे।' वस्तुपाल ने उत्तर में कहलवाया- 'हाँ, मैं वणिक् हूँ किन्तु सुनो- मैं जब दुकान पर बैठता हूँ उस समय तराजू में सामग्री को तोलता हूँ किन्तु जब मैं युद्ध के मैदान में होता हूँ उस समय शत्रुओं के सिरों को तोलता हूँ।' जैसे वे पराक्रमी थे वैसे ही वे दानप्रेमी भी थे। दान देते समय वे किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रखते थे, करोड़ों रुपयों का दान देते थे। ऐसे समर्थ व्यक्ति न केवल दानवीर एवं पराक्रमी ही थे अपितु विद्वान् भी थे। संस्कृत में सुन्दर सुभाषितों की रचना करते थे। प्रत्येक दृष्टि से समर्थ थे। "धर्माभ्युदय" काव्य की प्रतिलिपि वस्तुपाल ने स्वयं अपने हाथों से की थी। कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने पर भी वे साहित्य-लेखन करते
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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