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________________ लोकप्रियता १०७ गुरुवाणी - १ नहीं कर सकता। इस प्रकार वे प्रतिदिन स्वयं की आत्मनिन्दा करते हैं। जबकि प्रतिदिन तीन-तीन बार वहोरने के लिए इस महाराज को देखकर पहले तपस्वी महाराज विचार करते हैं - अरे, यह तो जीभ के पराधीन है । धिक्कार है इस पेटू को ! इस प्रकार उसकी निन्दा करते रहते हैं। गांव के श्रावक लोग जब भी उनके पास आते हैं ? तो वह तपस्वी महाराज उसी की निन्दा चर्चा करते हैं। चौमासा पूरा हुआ । यह पाटलीपुत्र / पटना की बात है। वहाँ कोई केवली भगवन् पधारते हैं । ग्रामवासी उनकी देशना सुनने के लिए जाते हैं। देशना के बाद वे गुरुमहाराज से पूछते हैं- भगवन् ! इस समय में चौमासे में हमारे यहाँ दो साधु महाराज रहे। उनमें एक तपस्वी था और दूसरा खाऊपीर, इन दोनों की क्या गति होगी ? यह सुनकर केवली भगवन् कहते हैं - सुनो, जो तपस्वी मुनि थे वे मरकर दुर्गति में जाएंगे और संसार में भ्रमण करेंगे। जिसको आप लोग खाऊपीर कहते हो वह साधु कुछ ही काल के पश्चात् मोक्ष जाएंगे। यह सुनकर ग्रामवासी आश्चर्य चकित रह गये । केवलज्ञानी कहते हैं - जो तपस्वी मुनि थे वे प्रतिक्षण निन्दा ही किया करते थे जबकि वह खाऊपीर साधु स्वयं की आत्मनिन्दा किया करता था । निन्दा करने से और अहंकार आने से हजारों वर्ष की तपस्या समाप्त हो जाती है। बाहुबली को केवलज्ञान प्राप्ति में केवल अहंकार ही बाधक था, था न? नहीं तो बाहुबली की कैसी उग्र तपस्या थी, किन्तु जब अहंकार नष्ट हुआ तो तत्काल ही उन्हे केवलज्ञान मिल गया । केवल नम्रता के विचार ही मनुष्य को कहाँ से कहाँ ले जाते हैं? गुणवान की निन्दा करना यह तो महा भयंकर पाप है । सरल हृदय की प्रार्थना .... भगवान् के पास में सरल हृदय की प्रार्थना शीघ्र ही पहुँचती है। एक मन्दिर में धर्मगुरु प्रार्थना करा रहे थे। श्रोतागण अच्छी तरह से उस प्रार्थना को ध्यानपूर्वक सुन रहे थे और स्वीकार कर रहे थे । उनमें एक छोटा सा बालक भी था । वह भी अपने हाथों को नचा-नचा कर प्रार्थना
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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