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________________ १०८ लोकप्रियता गुरुवाणी-१ कर रहा था। धर्मगुरु ने उससे पूछा - अरे, तू क्या कर रहा है? क्या तुझे प्रार्थना करनी आती है? वह लड़का कहता है - देखिये, यह पूरी प्रार्थना स्वर और व्यंजन अथवा बारह खड़ी से ही बनी हुई है। मैं पूरी बारहखड़ी कह देता हूँ और कहता हूँ - भगवान् ! इस बारहखड़ी में से आप अपनी प्रार्थना बना लेना। यह सुनकर धर्मगुरु हंस पड़े। कैसा सरल हृदय है! क्रमशः हमारे पास किसी प्रकार की गारन्टी नहीं है कि हम मृत्यु के बाद सुखी होंगे ही। हमारी चौबीस घण्टों की प्रवृत्ति क्या है? खाना-पीना, पहनना, घूमना-फिरना बस यही विचार दिमाग में घूमते रहते हैं। क्या अन्य विचार भी करते हैं? यहाँ मस्ती से खाते हैं किन्तु कुत्ते की योनि में जाने पर एक रोटी के टुकड़े के लिए भी पत्थर खाने पड़ेंगे। कवि कालिदास कहते हैं - तुम थोड़े से टुकड़ों के लिए अपना बहुत कुछ खो रहे हो।
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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