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________________ सर्वत्र सत्य ही श्रावण सुदि १२-१३ प्रिय वाणी.... जिस मनुष्य के स्वभाव में सौम्यता होगी उसकी वाणी भी मीठी एवं मधुर होगी। अनन्त पुण्योदय से हमको जो वाणी मिली है उस वाणी का उपयोग प्रिय बोलने में और भगवान् की स्तुति करने में ही होना चाहिए। जबकि हम उसका उपयोग जैसे-तैसे बोलने में करते हैं अर्थात् पत्थर फेंकने में ही करते हैं । हेमचन्द्रसूरिजी महाराज ने चारित्र की दो प्रकार से व्याख्या की है । १. पाँच महाव्रत और २. अष्ट प्रवचन माता । इसमें भी भाषा समिति पर अधिक जोर दिया गया है, क्योंकि मनुष्य की मति, कुल आदि की पहचान उसकी वाणी से ही होती है। जबकि सामने वाले पर हम तो कटुक वाणी रूप बाण ही बरसाते रहते हैं । तनिक भी सभ्यता नहीं। भगवान् ने केवलज्ञान प्राप्त किया, किसके बल पर ? मौन के बल पर ही न? मौन से साधना अत्यन्त बलवती होती है । अत: वाणी सत्य और हितकारी ही बोलनी चाहिए। सच्ची होने पर भी दूसरों की हिंसा करने वाली और अहित करने वाली वाणी नहीं बोलनी चाहिए। सत्य भी असत्य . 1 एक तापस था। वह सत्यवादी था और वह गांव के बाहर रहता था। संयोग ऐसा बना कि लूट-पाट करने वाले उस गांव में आए। गांव में रहने वाले लोगों को पहले से ही खबर मिल जाने के कारण समस्त ग्रामवासी अपनी बहुमूल्य चीजें लेकर गांव के बाहर वृक्षों के झुण्ड में घुसकर बैठ गये । लुटेरे आए, गांव को बिल्कुल खाली देखा। उन्होंने विचार किया, गांव के बाहर जो तापस रहता है उससे पूछना चाहिए। वह तापस सत्यवादी होने के कारण सत्य ही कहेगा । लुटेरों ने तापस से
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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