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समता की साधना
गुरुवाणी-१ था इसीलिए उसने विचार किया - सम्भव है मेरे द्वारा गुरु महाराज का अविनय हो गया हो। अरे रे! मेरे कारण गुरु महाराज को आर्तध्यान हुआ, क्रोध आया और इन्हीं शुभ विचारों में वह आगे बढ़ता जाता है, अन्तिम सीढ़ी पर चढ़कर समस्त कर्मों को चूर्ण कर क्षण मात्र में ही केवलज्ञान प्राप्त करता है। देखो, यह सौम्य प्रकृति मनुष्य को कहाँ से कहाँ ले जाती है.... मोक्ष तक ले जाती है। समदृष्टि से सच्ची शान्ति ...
जो मनुष्य यह सोचता है, मैं सच्चा हूँ, मैं अच्छा हूँ, वास्तव में वह कभी भी उन्नति के शिखर पर नहीं पहुँच सकता। जीवन में अपूर्व शान्ति प्राप्त करनी हो तो मान-अपमान को समान गिनें। मान से फूलें नहीं और अपमान से कुमलाएं नहीं। स्वर्ण और पत्थर को समान देखने पर ही शान्ति मिलती है। जैसे क्रोध त्याग योग्य है वैसे ही मान भी त्याग योग्य है। क्रोध को कड़वा जहर की उपमा दी गई है। भामण्डल - आभामण्डल....
___ भगवान् के पीछे की तरफ जो भामण्डल होता है वह कहाँ से आता है? यह जानते हो? वस्तुतः यह मण्डल गुणों का मण्डल होता है।
समता की साधना....! सरलता की साधना....! क्षमा की साधना....! ज्ञान की साधना....!
इन समस्त साधनाओं मे से एक-एक गुण की आभा उत्पन्न होती है और सभी स्वभाव का एक आभामण्डल तैयार होता है। ईर्ष्यालु सदा दुःखी....
__ मनुष्य स्वयं के दुःखों से दुःखित हो यह स्वाभाविक है, किन्तु आज मनुष्य दूसरों के सुखों से दुःखी है। सम्पूर्ण विश्व में यही दुर्गुण व्याप्त है। किसी की बढ़ती हुई समृद्धि को देखकर ईर्ष्यालु के पेट में तेल उंडेलने के समान गड़बड़ मच जाती है।