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गुरुवाणी-१
समता की साधना के लिए जाता है किन्तु लाते हुए बर्तन गिर पड़ता है और सारा दूधपाक भट्ठी में गिर जाता है । सेठ एकदम छलांग मारकर रसोइये का हाथ पकड़ लेता है और कहता है - हे भाई, तू कहीं जला तो नहीं न? भले ही दूधपाक ढुल गया हो। सब लोग यह सुनकर स्तब्ध हो गये। बहुत से तो यह समझ रहे थे कि रसोइया को अभी दो चार थप्पड़ लगा देंगे। परन्तु, उसके स्वभाव में सौम्यता थी। उसने सब लोगों के सामने जाकर कहाभाईयों! मुझे माफ कर दो, आज यह घटना घट गई इसका मुझे हृदय से
खेद है। दूधपाक के अतिरिक्त जो भोजन बना हुआ है, मैं आपको परोसता हूँ। सब लोग वाह वाह बोलते हुए कहने लगे। सेठजी दूधपाक तो हमने बहुत बार खाया है किन्तु ऐसी सज्जनता और स्वभाव में सौम्यता हमने कहीं नहीं देखी। महात्मा अंगर्षि ....
प्रकृति की सौम्यता से मनुष्य केवलज्ञान तक पहुंच जाता है। एक गुरु के पास दो विद्यार्थी पढ़ते थे। उसमें एक विद्यार्थी सौम्य प्रकृति का था और दूसरा उद्धत स्वभाव का। गुरुकुल में रहते हुए दोनों शिष्य गुरु की समस्त प्रकार से सेवा करते थे। जङ्गल में लकड़ी लेने के लिए जाते थे, खाना बनाते थे आदि। एक दिन दोनों शिष्य जङ्गल में लकड़ी लेने के लिए गए थे। प्रकृति सौम्य अङ्गर्षि महात्मा भी दूर जङ्गल में लकड़ी लेने के लिए गये थे। उद्धत विद्यार्थी लकड़ी के भार को ले जाने वाली बुढ़िया से लकड़ी छीनकर गुरु के पास शीघ्र ही पहुँच जाता है और अपने गुरु से कहता है - अङ्गर्षि तो किसी बुढ़िया को पीटकर उसकी लकड़ियाँ छीनकर आ रहा है। गुरु महाराज उसकी बात को सच मानते हैं, इसी कारण अङ्गर्षि के आते ही गुरु महाराज क्रोधित होकर उसे उपालम्भ देते हैं। भूल होने पर उपालम्भ मिले तो भी उसे हम सहन नहीं कर सकते, तो यहाँ तो बिना भूल के उपालम्भ मिलने की घटना थी। तुम होते तो क्या करते? आग-बबूले हो जाते न? किन्तु यह अङ्गर्षि तो सौम्य प्रकृति का