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________________ समता की साधना श्रावण सुदि ११ स्वभाव परिवर्तन आवश्यक है .. मनुष्य को जब सम्यक्त्व का ज्ञान हो जाता है और उस सम्यक्त्व में निरन्तर दृढ़ता आ जाती है तो उसका अधिक से अधिक सातवें - आठवें भव में मोक्ष हो जाता है। शास्त्र में कहा गया है कि इस जीव ने पूर्वजन्मों मेरु पर्वत के समान ओघा/रजोहरण ग्रहण किया होगा । व्रत- प्रत्याख्यान किए होंगे, परिषहों को सहन किया होगा? तब भी इस जीव को मोक्ष क्यों प्राप्त नहीं हुआ? इसका कारण यह है कि प्रत्येक जन्म/जीवन में तात्त्विक धर्म की प्राप्ति नहीं हुई । इसीलिए इस जीव को इस संसार में भटकना पड़ा है। मनुष्य को कभी यह विचार आता है कि वास्तव में मेरा स्वभाव बदलने योग्य है? प्रत्येक को यह लगता है कि मेरा स्वभाव तो अच्छा है उसे दूसरे के स्वभाव में ही दोष नजर आते हैं। हमें पश्चिम की ओर जाना हो तो पश्चिम दिशा में ही चलना पड़ेगा। हमारे लिए कोई पश्चिम का रास्ता पूर्व में नहीं आ जाएगा। गाड़ी हो तो उसे पूर्व में से पश्चिम की ओर घुमा सकते हैं किन्तु पश्चिम में गांव हो तो उसे पूर्व में नही ला सकते। आप दूसरे मनुष्य को बदलने का अथवा उसके स्वभाव को बदलने का विचार मत करो, किन्तु तुम अपने स्वभाव की ओर तथा खुद के ही दोषों की तरफ नजर डालो। तू जला तो नहीं न ?.... एक मनुष्य ने बड़े-बड़े सेठों को भोजन करने का आमंत्रण दिया। स्वयं भी अच्छा धनिक था। भोजन स्थल पर पाटे बिछा दिए गये। सब लोग भोजन के लिए बैठ गये । दूधपाक / खीर तैयार थी। सेठ ने रसोइये को आदेश दिया कि पहले दूधपाक का बर्तन लाओ । रसोइया लेने
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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