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________________ गुरुवाणी-१ परिशीलन से प्राप्ति इजाजत दीजिए । मुझे उनकी सेवा का लाभ मिलेगा। गुरु महाराज ने राजा का आग्रह देखकर स्वीकृति प्रदान कर दी। राजमहलों में रहते हुए राजपरिवार की सेवा और प्रतिदिन गरिष्ठ आहार-पानी मिलने से कंडरीक मुनि का शरीर भी पुष्ट बनता जाता है। इधर मुनि का शरीर पुष्ट बनता है और उधर उनके चारित्रिक जीवन में शिथिलाचार भी बढ़ता जाता है। आत्मा के परिणाम कमजोर होते जाते हैं। राजा पुंडरीक को जब यह सूचना मिली तो उसके हृदय को आघात लगा। स्वस्थ होने पर भी मुनि विहार करने का नाम नहीं लेते थे। राजा पुंडरीक ने विहार करने के लिए युक्ति पूर्वक प्रेरणा दी। और, कोई रास्ता न देखकर अनिच्छा पूर्वक कंडरीक मुनि ने वहाँ से विहार किया। सुखशील जीवन के अभ्यस्त हो जाने के कारण चारित्रिक कठिन जीवन से कंडरीक का दिल ऊब गया। फलतः कुछ समय बाद गुरु से अलग होकर उस नगरी में आते हैं। नगर के बाहर उद्यान में साधु वेश के उपकरणों की गांठ बाँधकर झाड़ पर लटका दी और स्वयं निराश होकर उसके नीचे बैठ गये। राजा की दासी ने इस घटना को देखा और वह पहचान गई कि यह कंडरीक मुनि ही हैं। उस दासी ने राजा को समाचार दिये। इसीलिए स्वयं राजा पुंडरीक वहाँ आते हैं। दूर से देखकर राजा समझ गया कि कुछ गड़बड़ है। राजा ने अनेक प्रकार से कंडरीक को समझाया किन्तु वह सुखशीलिया नहीं माना। अन्त में कंडरीक को राजगद्दी पर बिठाकर स्वयं पुंडरीक ने चारित्र ग्रहण कर लिया। कंडरीक चारित्र को छोड़कर राजमहलों में रहने के लिए आए थे इस कारण परिवार के लोग उन्हें तिरस्कार की दृष्टि से देखते थे। फलतः कोई भी उसकी आज्ञा को स्वीकार नहीं करता था। कंडरीक ने पहले ही दिन खूब रस पूर्वक स्वाद ले लेकर ढूंस-ठूस कर खाना खाया, किन्तु कमजोर शरीर होने के कारण वह उसे पचा नहीं सका। रात में ही उसके पेट में भयंकर उदरशूल हुआ। एक ओर पेट की भयंकर वेदना और दूसरी तरफ राजकीय आदमियों का अनादर, इन दोनों
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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