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________________ परिशीलन से प्राप्ति गुरुवाणी - १ ९० कहते हैं- गुरु निष्परिग्रही होता है, तपस्वी होता है, रूखा-सूखा भोजन करता है आदि। यह वर्णन सुनकर और गौतमस्वामी की हृष्ट-पुष्ट काया देखकर कुबेर देव को हंसी आती है । गौतमस्वामी सर्वदा छट्ट के पारणे छकी तपस्या करते थे किन्तु भगवान् के आशीर्वाद से, ज्ञान से, समता से और प्रसन्नता से उनका शरीर हृष्ट-पुष्ट था । केवल खुराक ग्रहण करने से उनका शरीर स्थूल नहीं था । प्रसन्नता ही आत्मा और देह की सच्ची खुराक है। गौतम स्वामी यह समझ जाते हैं कि मेरे शरीर को देखकर ही मेरे वचनों पर देव हंस रहा है। उसके संशय को दूर करने के लिए कंडरीक-पुंडरीक का कथानक सुनाते हैं। कंडरीक-पुंडरीक .. कंडरीक और पुंडरीक राजपुत्र थे। दोनों सगे भाई थे। किसी स्थवीर महात्मा का उपदेश सुनकर उन दोनों को वैराग्य उत्पन्न हुआ। दोनों भाईयों के बीच में चारित्र - ग्रहण को लेकर घर पर वाद-विवाद हुआ। वह कैसा समय होगा? जहाँ संसार छोड़ने के लिए दो भाई आपस में मीठा झगड़ा करते थे । आज तो पैसे के लिए भाई-भाई के विरुद्ध अदालत में जाते हैं और रिवालवर से भाई को खत्म भी कर देते हैं । इन दोनों भाईयों में से छोटे भाई ने दीक्षा ग्रहण की और वह कंडरीक मुनि बना। अनुक्रम से गुरु के साथ विहार करते हुए कंडरीक मुनि ने बहुत ही उच्च कोटि का संयम पालन किया। उनकी तप साधना भी बड़ी कठोर थी । १ हजार वर्ष पर्यन्त तप करते हुए उनका शरीर सूख कर कांटा हो गया था । अन्त-प्रान्त भोजन से उनके शरीर में अनेक व्याधियाँ भी उत्पन्न हो गई थीं, किन्तु आत्मा का आनन्द अपूर्व होता है। एक समय विहार करते हुए कंडरीक मुनि अपने संसारी भाई पुंडरीक राजा की नगरी पुंडरीकिणी पधारे। पुंडरीक राजा गुरुवंदन के लिए उपवन में गये । स्वयं भाई महाराज को अत्यन्त कृशकाय देखकर उन्होने गुरुदेव से विनंती की - गुरुदेव, मेरे बन्धु मुनि को थोड़े दिन के लिए यहीं पर रहने की
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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