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________________ परिशीलन से प्राप्ति गुरुवाणी - १ ९२ यातनाओं को भोगता हुआ कंडरीक अत्यन्त तीव्र अशुभ विचार करता है । मैं इस वेदना से मुक्त हो जाऊं तो प्रातः काल ही इन राजकीय आदमियों को मार-मारकर ठीक कर दूंगा। ऐसे क्लेश युक्त परिणामों से ग्रस्त होकर कंडरीक मृत्यु प्राप्त करता है और सातवीं नरक में पहुँच जाता है । इधर पुंडरीक राजर्षि चारित्र की आराधना करके सर्वार्थसिद्धि देवलोक में उत्पन्न होते हैं और भविष्य में मोक्ष जाएंगे। इस प्रकार देशना देते हुए गौतमस्वामी कुबेर देव को कहते हैंभाई ! पुण्य-पाप के कारण शुभ और अशुभ ध्यान है । शरीर के आकार से कोई निर्णय नहीं किया जा सकता, उसके अध्यवसाय पर ही सब कुछ आधार है । साधु का शरीर यह उसका बाह्य स्वरूप है जबकि ध्यान उसका अभ्यन्तर स्वरूप है । देशना पूरी होती है। गौतमस्वामी पर्वत से नीचे आ जाते है। कुबेर देव भी वहाँ से देवलोक चले जाते हैं । इस वार्ता के समय साथ में रहे हुए देवों में से एक देव ने पाँच सौ बार इसका परिशीलन किया। वह देव वहाँ से च्युत होकर वज्रस्वामी बनता है । उत्तम परिशीलन से भी मनुष्य में कैसे संस्कार सिंचित होते हैं । अतः व्याख्यानश्रवण के पश्चात् उसका गहन चिन्तन करना अत्यन्त आवश्यक है, किन्तु हम तो श्रवण मात्र में ही अटक गये हैं । मनुष्य मृत्यु प्राप्त होने पर तीन वस्तुएँ साथ लेकर जाता है - पुण्य, पाप और संस्कार । संस्कार में विनय, विवेक, सदाचार, क्षमा और परोपकार सबसे अधिक महत्त्व के हैं। यहां से हम जहाँ भी जाएँगें वहाँ पूर्वजनित संस्कारों पर ही हमारे जीवन की रचना होगी। पुण्य से सुख मिलेगा, पाप से दुःख और श्रेष्ठ संस्कारों से जीवन उज्ज्वल बनता है । यह सब हमारे ही हाथ में है ।
SR No.006129
Book TitleGuru Vani Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJambuvijay, Jinendraprabashreeji, Vinaysagar
PublisherSiddhi Bhuvan Manohar Jain Trust
Publication Year
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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