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सूत्र संवेदना-५
सामान्य मानवों से देवताओं की ऋद्धि, समृद्धि और शक्ति असंख्य गुनी होती है । असंख्य देवो की विशाल दुनिया में महाऋद्धि और समृद्धि के स्वामी तथा विशिष्ट बुद्धि के मालिक ऐसे चौंसठ इन्द्र होते हैं । शांतिनाथ भगवान की गुण समृद्धि से आकर्षित हुए वे इन्द्र भावपूर्ण हृदय से भगवान की सम्यग् प्रकार से पूजा करके अपने आप को धन्य मानते हैं। सामान्य देव या मानव भगवान की भक्ति करें यह तो समझ में आता है; परन्तु ऐसे समृद्धिसंपन्न देवेन्द्र भी जब भगवान की भक्ति करें तब शांतिनाथ भगवान की महानता का ख्याल आता है।
जिज्ञासा : आगे परमात्मा को 'तीनों जगत् से पूजित' कहा गया है, उससे परमात्मा इन्द्रों से पूजित हैं, यह बात आ गई थी, तो फिर यह विशेषण अलग से क्यों दिया गया ?
तृप्ति : बात सच है किन्तु प्रभु यहाँ इन्द्रों से भलीभाँति पूजित हैं ऐसा कहने का कारण यह है कि दुनिया जिसके पीछे दौड़ती है, ऐसी ऊँची कक्षा की ऋद्धि-समृद्धि के स्वामी इन्द्र हैं । इसलिए अधिकतर देवता इन्द्र को स्वामी मानते हैं । मानव और नरेन्द्र उनको इष्टदेव मानकर उनकी पूजा आदि करते हैं। इस प्रकार अनेकों द्वारा पूजित इन्द्र भी भगवान की पूजा करते हैं । उनको अपना नाथ मानते हैं । स्वामी के रूप में मानकर सदैव उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं । ऐसा जानने से संसार के जीवों को भगवान की महानता का विशेष प्रकार से बोध हो इसलिए 'सर्वामरसुसमूह-स्वामिक-सम्पूजिताय' स्वरूप एक अलग विशेषण का उपयोग किया गया है ।
१२ न जिताय12 - किसी से नहीं जीते गए (ऐसे शांतिनाथ भगवान को मेरा नमस्कार हो ।)
12. निजिताय, नजिताय, विजिताय, निचिताय वगैरह पाठांतर मिलते हैं।