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सूत्र संवेदना-५ माया, मोह, ममता, आसक्ति आदि से रहित होने के बावजूद प्रभु सहज ही किसी के भी साथ उचित व्यवहार नहीं चूकते थे ।
लौकिक हो या लोकोत्तर, औदयिक हो या क्षायोपशमिक सभी गुणों की पराकाष्ठा प्रभु में दिखाई देती थी। अतः यहाँ प्रभु ‘प्रशंसा करने योग्य' कहे गए हैं।
९. त्रैलोक्य-पूजिताय च - और तीनों लोक से पूजित (श्री शांतिनाथ भगवान को मेरा नमस्कार हो।) ।
गुणसमृद्धि से प्रशंसा के पात्र बने प्रभु तीन जगत के जीवों द्वारा अर्थात् ऊर्ध्व, अधो, तिर्यंच लोक में रहनेवाले भव्यात्माओं द्वारा भक्तिपूर्ण हृदय से पूजित हैं । अर्थात् तीनों लोक के योग्य जीव भगवान को नाथ के रूप में स्वीकारते हैं, अपनी भूमिका के अनुसार यथाशक्ति उनकी आज्ञा का पालन करते हैं और बहुमानपूर्वक उत्तम द्रव्यों से उनकी पूजा, भक्ति आदि करते हैं। इस प्रकार भगवान तीनों जगत् द्वारा पूजित हैं।
१०. नमो नमः शान्तिदेवाय - शांति के अधिपति श्री शांतिनाथ भगवान को मेरा बार-बार नमस्कार हो।।
पूर्व गाथा की तरह यहाँ भी नमो नमः पद दो बार बोलने द्वारा हर्ष का अतिरेक प्रदर्शित किया गया है, इसलिए पुनरुक्ति दोष नहीं है। यह गाथा बोलते हुए साधक सोचता है कि
'दुनिया में किसी के पास न हो, ऐसी समृद्धि के स्वामी होने के बावजूद मेरे नाथ की निर्लेपता कैसी है ! सबकी प्रशंसा के पात्र होने के बावजूद उनकी निःस्पृहता कैसी है ! तीनों लोक में पूजनीय होने के बावजूद उनकी उदासीनता कैसी है ! ऐसे स्वामी का सेवक होने का