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________________ लघु शांति स्तव सूत्र ७३ करना। इसलिए मुनि भगवंत प्रतिपल उनकी आज्ञा को समझपूर्वक स्वीकार कर अपना समग्र जीवन उसके अनुसार जीने का प्रयत्न करते हैं। वे जानते हैं कि, “इस स्वामी की आज्ञानुसार जीने से वर्तमान भी सुखमय बनेगा और भविष्य में भी मोक्ष का महासुख प्राप्त होगा। उनकी आज्ञा से चलित होने पर सुख तो दूर, बल्कि दुर्गति की गर्ता में अवश्य गिर जाएँगे।" इसीलिए वे तप, जप, इन्द्रिय दमन जैसे संयम के योग स्वेच्छा से स्वीकारने के बावजूद उसका पालन स्वेच्छा से नहीं करते, बल्कि प्रभु की आज्ञा को आगे रखकर ही करते हैं। वे समझते हैं कि, प्रभु की आज्ञानुसार इन्द्रियों का दमन करने से ही वह दमन सानुबंध बनेगा और परंपरा से सर्वथा इन्द्रियों की गुलामी से मुक्त करवाकर स्वाधीन सुख का साम्राज्य प्राप्त करवाएगा । इसी कारण से शांतिनाथ भगवान को मुनि भगवंतों का स्वामी कहकर, नमस्कार किया गया है। इस तरह इस गाथा में छ: विशेषणों द्वारा शांतिनाथ भगवान की स्तुति की गई है। यह गाथा बोलते हुए साधक सोचता है कि, "हे प्रभु ! जहाँ मेरी नाभि से ॐ का नाद निकलता है, वहाँ करोड़ों देवताओं द्वारा भक्ति स्वप निर्मित अष्ट महाप्रातिहार्य से सुशोभित आपकी तेजस्वी आकूति मेरे ध्यान में उपस्थित होती है । आप का यह ऐश्वर्य ही आपके योग के साम्राज्य को प्रकाशित करता है। सर्वत्र फैली हुई आपकी जय मेरी स्मृति को भिगो देती है । कहाँ आपका प्रत्येक शत्रु को परास्त करने का स्वभाव और कहाँ मेरा हर एक से पराजित होने का स्वभाव !
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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