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________________ ७२ सूत्र संवेदना-५ ५. यशस्विने : यशवाले, यशस्वी (ऐसे शांतिनाथ भगवान को मेरा नमस्कार हो।) यशस्वी होना अर्थात् संसार में प्रशंसा का पात्र बनना। यशस्वी व्यक्ति के कार्य की लोग कद्र करते हैं, कम कार्य करने के बावजूद लोगों को उसका काम ज़्यादा और अच्छा ही लगता है। इस प्रकार जिससे संसार में लोगों का सम्मान मिले, उसे 'यश' कहते हैं। आठ प्रकार के कर्मो में छठे नामकर्म में 'यश नामकर्म' नाम का एक कर्म है। ऐसी प्रसिद्धि मिलने का कारण यह यश नामकर्म है । उसके उदय से यश की प्राप्ति होती है। शांतिनाथ भगवान का यश नामकर्म ऐसा विशिष्ट था कि उनका कार्य तो दूर की बात है, उनका नाम मात्र भी लोगों के लिए आनंद का कारण बनता था। उनका जीवन और जीवन के एक-एक प्रसंग लोकप्रशंसा के परम हेतु बनते थे। __ ऐसा विशिष्ट यश नामकर्म उनके पूर्वभवों की साधना का फल था। पूर्व के भवों में अंतरंग साधना के रूप में उन्होंने परोपकार, अहिंसा आदि गुण सहज सिद्ध किए थे। मेघरथ राजा के भव में तो मात्र एक कबूतर को बचाने के लिए उन्होंने अपने प्राण तक दाँव पर लगा दिये थे। ऐसे गुणों के कारण ही शांतिनाथ भगवान का यश आज भी अखंडित रूप में चारों ओर फैल रहा है। इसलिए भगवान को 'यशस्विन्' विशेषण द्वारा नमस्कार किया गया है। ६. स्वामिने दमिनाम् - (मन और इन्द्रियों का) दमन करनेवाले साधकों के स्वामी (ऐसे शांतिनाथ भगवान को मेरा नमस्कार हो।) मन और इन्द्रियों का जो दमन करता है उसे दमी या मुनि कहते हैं। ऐसे मुनि भगवंत भी शांतिनाथ प्रभु को अपना स्वामी मानते हैं। स्वामी के रूप में स्वीकार करने का अर्थ है - उनकी आज्ञानुसार जीने का संकल्प
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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