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________________ ७१ लघु शांति स्तव सूत्र इस जगत् में देव, असुर या मानव, जो पूजा-सत्कार-सम्मान प्राप्त करते हैं, उससे अनंतगुण अधिक पूजा तीर्थंकरों की होती है । और तो और उनके पाँच कल्याणक आदि प्रसंगों पर देव जिस प्रकार उनकी विशिष्ट भक्ति करते हैं, वैसी महान भक्ति के लिए संसार में एक मात्र परमात्मा ही योग्य हैं, इसलिए उन्हें 'अर्हत्' नाम से संबोधित कर नमस्कार किया जाता है । ४. शान्ति-जिनाय जयवते - जयवाले शांतिजिन को (मेरा नमस्कार हो।) इस संसार में बाह्य सुख के लिए जैसे बाह्य शत्रुओं को पराजित करना पड़ता है, उसी प्रकार आंतरिक सुख के लिए अंतरंग शत्रुओं को पराजित करना पड़ता है। शांतिनाथ भगवान का पुण्य-प्रभाव ही ऐसा था कि बाह्य शत्रुओं को जीतने के लिए उन्हें कोई प्रयत्न ही नहीं करना पड़ा। बाह्य दुनियाँ में तो वे जन्मजात विजेता थे; परन्तु तप और ध्यान की विशिष्ट साधना द्वारा उन्होंने प्रयत्नपूर्वक अंतरंग शत्रुओं को भी परास्त किया। जिसने पूरी दुनिया को फँसाया हुआ है, बड़े-बड़े वीरों को जिसने अपने घेरे में ले लिया है, सर्वत्र जीत प्राप्त करनेवाले पराक्रमी पुरुष भी जिससे हार चुके हैं, ऐसे अड्डा जमाकर बैठे हुए, मोह रूपी महाशत्रु को प्रभु ने क्षमा आदि शस्त्रों द्वारा इस प्रकार हरा दिया कि वह सदैव के लिए प्रभु की परछाई से भी दूर भाग गया। इस प्रकार प्रभु बाह्य और अंतरंग शत्रुओं के विजेता हुए। इसी कारण स्तवकार ने 'जयवते' विशेषण से प्रभु को संबोधित कर कहा है कि, 'सर्वत्र विजय को प्राप्त करनेवाले शांतिनाथ भगवान को मेरा नमस्कार हो।'
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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