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सूत्र संवेदना - ५
होती हैं, उन सभी विकारों का शमन आंतरिक शांति है। यह शांति ही मन की स्वस्थता, चित्त की प्रसन्नता और आत्मा को अपूर्व आनंद देती है ।
शांतिनाथ भगवान के पास जाने से, उनको नमस्कार करने से, उनका स्मरण या ध्यान करने से ऐसे प्रकृष्ट पुण्य का उदय होता है जिससे बाह्य उपद्रव तो शांत होते ही हैं साथ ही एक ऐसी आंतरिक शुद्धि प्रकट होती है जिससे प्रत्येक प्रकार के आंतरिक उपद्रव भी शांत हो जाते हैं। इसलिए प्रभु शांति के स्थानभूत कहलाते हैं।
प्रभु शांति के स्थानभूत क्यों है, यह बताते हुए अब दूसरा विशेषण बताते हैं।
शान्तं : शांत भाव से युक्त - प्रशमरस में निमग्न (शांतिनाथ भगवान को )
कषाय के शमन से प्रकट हुए भाव को शांतभाव' (शांतरस ) 5 कहा जाता है । यह शांतभाव महा - आनंद देता है, श्रेष्ठ सुखों का अनुभव करवाता है तथा परम प्रमोद का कारण बनता है । इसके अलावा जगत् में ऐसा कोई भाव नहीं है जो ऐसा सुख - आनंद या प्रमोद दे सके । दुनिया में शृंगार आदि रस सुख के कारण माने जाते हैं, परन्तु वे सभी भाव पराधीन हैं । उनको भुगतने के लिए अन्य वस्तु या व्यक्ति
3. 'शान्तं' प्रशान्तं उपशमोपेतं रागद्वेषरहितं इति अर्थः ।
श्रीमद् हर्षकीर्तिसूरिनिर्मित वृति. 4. न यत्र दुःखं न सुखं न चिन्ता न द्वेष - रागौ न च काचिदिच्छा ।
रसः स शान्तः कथितो मुनीन्द्रे : सर्वेषु भावेषु शमः प्रधानः ।।
5. शृंगार - हास्य करुण रौद्र वीर भयानकः । बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः
काव्यप्रकाशः
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स्मृताः ।।
इन आठ रस में 'शांत रस' को जोड़कर नौ रस कहलाते हैं । निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः ।