SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लघु शांति स्तव सूत्र विशेषार्थ : शान्तिं शान्तिनिशान्तं - शांति के स्थानभूत शांतिनाथ भगवान को (नमस्कार करके) इस संपूर्ण स्तव में शांतिनाथ भगवान की स्तवना की गई है। इसलिए यह स्तव संपूर्णतया मंगल रूप है; इसके बावजूद इस विशिष्ट रचना में कोई विघ्न न आए, इसलिए प्रारंभ में मंगलाचरण करते हुए यहाँ शांतिनाथ भगवान की स्तुति की गई है। इस गाथा में सबसे पहले प्रयुक्त 'शान्तिम्" शब्द सोलहवें तीर्थपति शांतिनाथ भगवान का सूचक है । वे शांतिवाले हैं, शांतिस्वरूप हैं और शांति करने में समर्थ हैं इसलिए उनका नाम उनके गुणों के अनुरूप है। उसके बाद के तीन पद उस परमात्मा की विशेषताओं प्रकाशित करते हैं। उसमें पहला विशेषण 'शांति-निशान्तं' है अर्थात् प्रभु शांति के धाम हैं। शांति का घर हैं। शांति का आश्रय स्थान हैं। शांति अर्थात् शांतभाव, शमन का परिणाम । इस जगत् में दुष्ट ग्रहों के कारण, व्यंतरादि के कारण, कुदरती प्रकोप के कारण या अन्य किसी कारण से जो अनेक प्रकार के उल्कापात या उपद्रव होते हैं, उन उपद्रवों आदि का शमन बाह्य शांति है । कषायों के कारण, विषयों की आसक्ति के कारण या किसी कर्म के उदय के कारण, हृदय में जो उल्कापात होता है, विकृत भाव प्रगट होते हैं या मन में व्यथाएँ उत्पन्न 1. इस स्तव के प्रारंभ में 'शान्तिम्' पद द्वारा दो हेतुओं की सिद्धि होती है। एक तो श्री तीर्थंकर देव के नाम-स्मरण द्वारा मंगल किया गया है और दूसरा मंत्र शास्त्र की दृष्टि से प्रारंभ में 'कर्म' का नाम लिखना ‘दीपन' है। जो शांति कर्म के लिए आवश्यक है वह दीपन यहाँ किया गया है। कर्म मुख्य छ: प्रकार के होते हैं : शांतिकर्म, वश्यकर्म, स्थंभनकर्म, विद्वेषकर्म, उच्चाटनकर्म और मारणकर्म । 2. शान्तियोगात् तदात्मकत्वात् तत्कर्तृत्वात् च शान्तिः - अभिधान चिन्तामणि
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy