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वरकनक सूत्र
मूत्र सूत्र : वरकनक-शङ्ख-विद्रुम-मरकत-घन-सन्निभं विगत-मोहम्। सप्ततिशतं जिनानां, सर्वामर-पूजितं वन्दे।।१।।
पद-४, गाथा-१, संपदा-४, गुरुअक्षर-४, लघुअक्षर-३७ कुल अक्षर-४१ अन्वयः वर कनक-शङ्ख-विद्रुम-मरकत-घन-सन्निभं विगत-मोहम् । सर्वामर-पूजितं सप्ततिशतं जिनानांवन्दे ।।१।। शब्दार्थ :
श्रेष्ठ सुवर्ण, श्रेष्ठ शंख, श्रेष्ठ परवाला, श्रेष्ठ नीलम और श्रेष्ठ मेघ जैसे वर्णवाले, मोह रहित और सर्व देवों द्वारा पूजित एक सौ सत्तर जिनेश्वरों की मैं वंदना करता हूँ । विशेषार्थ :
इस अवसर्पिणी में जब वर्तमान चौबीसी के दूसरे तीर्थंकर श्री अजितनाथ भगवान विचरण कर रहे थे, तब एक साथ अवनितल पर १७० तीर्थंकर विचर रहे थे - ५ भरत क्षेत्र में ५ तीर्थंकर, ५ ऐरवत क्षेत्र में ५ तीर्थंकर, ५ महाविदेह क्षेत्र की ३२ विजयों में १-१ तीर्थंकर। इससे पाँच महाविदेह क्षेत्र में ३२ x ५ = कुल १६० तीर्थंकर हुए । इस प्रकार कुल १६०+५+५ = १७० तीर्थंकरों की उत्कृष्ट संख्या प्राप्त होती है ।
ये १७० तीर्थंकर प्रकृष्ट पुण्य के स्वामी होते हैं । विशिष्ट आंतरिक समृद्धि को सूचित करते हुए जन्म से ही उन्हे श्रेष्ठ देह एवं उत्तमोत्तम बाह्य वैभव की प्राप्ति होती है । जिनेश्वरों की ऐसी बाह्य समृद्धि को बताने के लिए स्तुतिकार कहते हैं कि १७० उत्कृष्ट जिनेश्वरों में ३६ जिनेश्वर वरकनक अर्थात् श्रेष्ठ सुवर्ण जैसे पीले रंग की छटा वाले