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________________ २३ नमोऽस्तु वर्धमानाय ज्येष्ठ महीने में सूर्य के ताप से गरमी और घबराहट बहुत होती है। जिस प्रकार उस वक्त आइ हुई बारिश अति सुखकारी और संतोषजनक लगती है, उसी प्रकार अनादिकाल से क्रोध, मान, माया और लोभरूपी चार कषायों से अत्यंत तप्त ऐसे जगत् के जीवों के लिए श्री जिनेश्वर देव के मुख रूपी मेघ में से निकली हुई वाणी का प्रवाह शीतलता एवं शांति का अनुभव करवाता है ।। अंत में स्तुतिकार अपने हृदय की अभिलाषा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि “ऐसी अमृततुल्य वाणी मेरे ऊपर प्रसन्न हो' । यहाँ वाणी तो जड़ है, फिर भी वह प्रसन्न हो ऐसी भावना द्वारा ग्रंथकार ऐसी इच्छा करते हैं कि, “मेरे हृदय में प्रभु की पावनकारी वाणी का वास हो, मेरी प्रत्येक क्रिया वाणी के अनुसार हो और मेरी विचारधारा वाणी के अनुसार ही सक्रिय रहे ।" यह अंतिम गाथा बोलते हुए साधक सोचे कि, “कषायों के ताप और संताप के कारण मैं अनंतकाल से संतप्त रहा हूँ। इस ताप को टालने की शक्ति जिन वचनों में है, उन से हृदय को आर्द्र करूँगा तो ही अनंतकाल का ताप टलेगा । इसलिए हे प्रभु ! कषायों के ताप को शांत करनेवाले आपके वचन मेरे हृदय में परिणत हों, मेरे हृदय को प्लावित करें, ऐसी प्रार्थना करता हूँ।"
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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