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नमोऽस्तु वर्धमानाय
२१ हमें कर्म की गुलामी से बचाएँ, आपके शुद्ध स्वरूप का
दर्शन करवाएँ और हमें मोक्ष का महासुख दें !” येषां विकचारविन्दराज्या ज्यायक्रमकमलावलिं दधत्या - जिनके श्रेष्ठ चरण कमल की श्रेणी को धारण करनेवाली (देवनिर्मित) विकसित (सुवर्ण) कमल की हारमाला ।
संस्कृत काव्य के अर्थान्तर गर्भित उत्प्रेक्षा अलंकार से सुशोभित यह पंक्ति जिनेश्वर के विहार का दृश्य नज़र के समक्ष उपस्थित करती है । इसमें विकचारविन्द का अर्थ है - विकसित कमल, राजि अर्थात् श्रेणी। केवलज्ञान उत्पन्न होते ही प्रभु, तीर्थंकर नामकर्म के विपाकोदय से अष्ट महाप्रातिहार्य और चौंत्तीस अतिशयों से सुशोभित होते हैं। इसमें इक्कीसवाँ अतिशय ऐसा है कि प्रभु जिस मार्ग पर चलते हैं वहाँ देव मक्खन से भी अधिक मुलायम सुवर्ण के कमलों की रचना करते हैं। केवलज्ञान के बाद प्रभु के पैर कभी भी भूमि के ऊपर नहीं पड़ते; उनके चरणों को यह विकसित नौ सुवर्ण कमलों की श्रेणी ही धारण करती है। इसीलिए विकसित कमलों की श्रेणी का विशेषण है . 'ज्यायःक्रमकमलावलिं दधती', उसमें ‘ज्यायः' का अर्थ श्रेष्ठ है, 'क्रम' का अर्थ चरण, ‘आवलि' का अर्थ श्रेणी और 'दधती' का अर्थ धारण करती हुई है । श्रेष्ठ चरणकमलों की श्रेणी को (अर्थात् प्रभु के पवित्र दो पैरों को) धारण करनेवाली । ऐसी रचना द्वारा कवि कहते हैं कि देव निर्मित सुवर्ण कमलों की श्रेणी, श्रेष्ठ चरण कमल की श्रेणी को धारण करती है ।
सदृशौरिति सङ्गतं प्रशस्यं कथितं - (जिस सुवर्ण कमल की श्रेणी ने प्रभु के चरण कमल की श्रेणी को धारण किया है वह) कहती है कि श्रेष्ठ/समान के साथ समागम होना प्रशंसनीय है ।