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________________ ३०९ सकलतीर्थ वंदना ये गाथाएँ बोलते समय साधक संपूर्ण ति लोक का नक्शा मन में लाकर और उसमें रहनेवाले शाश्वत चैत्य तथा रत्नमय प्रतिमाओं को स्मृतिपटल पर स्थापित कर अंजलिबद्ध प्रणाम करते हुए सोचे कि, "ऊर्ध्वलोक या अधोलोक के चैत्यों को देखने की तो मेरी शक्ति नहीं है, परन्तु तिर्छालोक के इन शाश्वत तीर्थों को देखने का भी मेरा सामर्थ्य नहीं है। यहाँ रहते हुए मैं भाव से उन सभी शाश्वत तीर्थों की वंदना करता हूँ। धन्य हैं उन जंघाचरण और विद्याचरण मुनियों को, जो तिर्छा-लोक के इन शाश्वत चैत्यों के दर्शन के लिए जा सकते हैं। मुझे तो अभी मात्र कल्पना करके संतोष मानना है। प्रभु ! आप से प्रार्थना करता हूँ कि भले ही आज मैं नंदीश्वर आदि द्वीप की यात्रा न कर सकूँ; परन्तु मेरे हृदय में रहनेवाले परमात्मस्वरूप के दर्शन में कर सकूँ ऐसी शक्ति दीजिए और उसके लिए आवश्यक कषायों की अल्पता के लिए मैं सत्त्वपूर्वक सुदृढ़ प्रयत्न कर सकूँ, ऐसे आशीर्वाद दीजिए ।” तीन लोक के चैत्यों की संख्या बताकर वंदना करने के बाद अब जहाँ असंख्यात चैत्य हैं, उनकी भी नामोल्लेखपूर्वक वंदना की गई है। ४. व्यंतर आदि के शाश्वत चैत्यों को वंदना : (गाथा-१०) व्यंतर ज्योतिषी मा वळी जेह, शाश्वता जिन वंदु तेह, ऋषभ चंद्रानन वारिषेण, वर्धमान नामे गुणसेन ।।१०।। शब्दार्थ : इसके बाद व्यंतर और ज्योतिषी देवों के निवास में जो-जो शाश्वत
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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