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________________ नमोऽस्तु वर्धमानाय १९ शुक्र-मासोद्भव-वृष्टि-सन्निभो जैनमुखाम्बुदोद्गतः य गिराम् विस्तरः कषायतापार्दितजन्तुनिर्वृतिं करोति सः मयि तुष्टिं दधातु ।।३।। जेठ महीने की (पहली) वर्षा के समान, जिनेश्वर के मुख रूपी मेघ में से निकली हुई वाणी का जो विस्तार, कषाय के ताप से पीड़ित प्राणियों को शांति देता है वह (वाणी का विस्तार) मुझ पर प्रसन्न हो ।।३।। विशेषार्थ : नमोऽस्तु वर्धमानाय - वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो । यह स्तुति इस चौबीसी के चरम तीर्थंकर श्री महावीर प्रभु की है। उनको मेरा नमस्कार' हो । माता के गर्भ में आते ही वीरप्रभु के पिता के भंडारों में धन-धान्य आदि की वृद्धि होने के कारण पिता ने उनका नाम वर्धमान रखा था; प्रभु की आंतरिक गुणसमृद्धि भी प्रतिदिन वृद्धिमान होने से इनका नाम यथार्थ ही साबित हुआ । स्पर्धमानाय कर्मणा - कर्म के साथ स्पर्धा करते (हुए वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो।) श्री वीरप्रभु ने दीक्षा लेकर अद्वितीय पराक्रम एवं शौर्यपूर्वक कर्म और आंतरिक शत्रुओं के साथ बारह वर्ष तक संघर्ष किया था। अनादिकाल से आत्मा को घेरे हुए शत्रुओं को दूर करना आसान नहीं है; परन्तु अपनी धीरता, वीरता, पराक्रम आदि गुणों के बल पर ही प्रभु कर्म के सामने युद्ध करने में सक्षम थे । तज्जयावाप्तमोक्षाय - कर्म रूपी शत्रु के ऊपर जय प्राप्त करके मोक्ष पानेवाले (वर्धमान स्वामी को नमस्कार हो) स्पर्धा में तो बहुत लोग उतरते हैं, परन्तु शत्रु के ज़ोरदार हमले के सामने टिके रहना, घोर-अतिघोर उपसर्गों और परीषहों को सहन 1. नमस्कार के विशेष अर्थ के लिए सूत्र संवेदना-२ में से नमोऽत्युणं सूत्र देखें ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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