________________
२८६
सूत्र संवेदना-५ भक्ति करने में ही अपने जीवन को सार्थक मानते हैं। धन्य है उनके मन की निर्मलता को जिससे वे परिश्रम के बिना मिले अमूल्य सुखों तथा पुण्य की पराधीनता को क्षणिक एवं नश्वर मानते हैं और उपशम भाव के अपने सुख को स्वाधीन और सदाकाल रहनेवाला मानकर सदा उसी को चाहते हैं। धन्य है उनकी दिव्यदृष्टि को जिनके द्वारा वे प्रभु के योगसाम्राज्य को यथार्थ देख सकते हैं और उसके कारण ही साक्षात् विचरण करते परमात्मा के पावनकारी कल्याणकों का उत्सव, समवसरण तथा अष्ट महाप्रतिहार्य की रचना कर प्रभु की अनन्य भक्ति करते हैं। ऐसा करके प्रभु के साथ सम्बन्ध जोड़ते हैं और साथ ही अनेक भव्य जीवों को भी प्रभु का परिचय करवाते हैं। हे विश्ववंद्य विभु ! देवों जैसी भक्ति करने की मेरी बुद्धि नहीं है और सामर्थ्य भी नहीं है, ना ही ऐसा सौभाग्य है जिससे शाश्वत चैत्यों की भक्ति करने में लीन बन जाऊँ। फिर भी प्रभु आज के मंगल प्रभात में यहीं बैठे-बैठे आपकी शांत सुधारसमयी १,५२,९४,४४,७६० प्रतिमाओं को मन में उपस्थित करके वंदन सहित प्रार्थना करता हूँ कि मुझे भी देवों जैसी भक्ति करने की विशिष्ट
शक्ति मिले।" ऊर्ध्वलोक के शाश्वत चैत्य तथा जिनबिंबों की संख्या बताने के बाद अब पाताललोक के चैत्य तथा जिनबिंबों की संख्या बताकर, उनकी वंदना की जा रही है।