________________
सकलतीर्थ वंदना
२८१
परंपरा भुगतने के लिए संसार में भटकने चले जाते हैं; जो देव जिनभक्ति आदि में जुड़ जाते हैं, वे भोगों के बीच भी कुछ आध्यात्मिक विकास साध सकते हैं ।
देवलोक के मन्दिरों का वर्णन :
देव जिनभक्ति करके अनादि के कर्ममल को कम कर सकें, उसके लिए देवलोक के हर एक विमान में एक-एक जिनभवन होते हैं, जो १०० योजन लंबे, ५० योजन चौड़े और ७२ योजन ऊँचे होते हैं। आज के प्रचलित नाप के हिसाब से कहें तो देवलोक का एक दहेरासर (मंदिर) लगभग १२०० कि.मी. लंबा, ६०० कि.मी. चौड़ा और ८६४ कि.मी. ऊँचा होता है। वर्तमान का कोई शहर भी इतना बड़ा नहीं है।
प्रत्येक शाश्वत जिनचैत्य रत्न, सुवर्ण और मणि के होते हैं। उनमें पश्चिम को छोड़कर ३ दिशा में ३ द्वार होते हैं । उस हर एक द्वार के नीचे छ: छ: स्थान होते हैं ।
१. मुखमंडप - पट्टशाखारूप
२. रंगमंडप - प्रेक्षागृहरूप
३. मणिमय पीठिका के ऊपर चौमुखजी से अलंकृत समवसरण (स्तूप) ४. अशोकवृक्ष की पीठिका और उसके ऊपर ८ योजन ऊँचा अशोकवृक्ष
५. ध्वज की पीठिका और उसके ऊपर १६ योजन ऊँचा इन्द्रध्वज और ६. निर्मल जल युक्त तालाब ( पुष्करिणी)
I
इस प्रकार हर एक द्वार पर एक-एक चौमुखजी भगवान होते हैं तीनों द्वारों की कुल मिलाकर बारह प्रतिमाएँ होती हैं ।