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________________ २८० सूत्र संवेदना-५ चौव्वालीस हजार, सात सौ साठ (१,५२,९४,४४,७६०) विशाल जिन प्रतिमाओं को याद करके मैं उन्हें तीनों काल प्रणाम करता हूँ ।।६-७।। विशेषार्थ : यह संपूर्ण विश्व १४ रज्जूलोक प्रमाण है। उसमें सामान्य से ऊपर के (९०० योजन न्यून) सात राजलोक को ऊर्ध्वलोक और नीचे के (९०० योजन न्यून) सात राजलोक को अधोलोक कहा जाता हैं। मध्य में १८०० योजन का तिर्छा लोक आता है। ऊर्ध्वलोक में १२ देवलोक वगैरह देवताओं के आवास हैं। उसमें सौधर्म नाम का पहला देवलोक है, जिसका अधिपति सौधर्म इन्द्र है। इस देवलोक में बत्तीस लाख विमान हैं, जिसमें फूल की शैय्या के ऊपर देवों का जन्म होता है। उनको मनुष्य आदि की तरह गर्भावास नहीं होता। जन्म होने के साथ ही वे सोलह वर्ष के युवा की काया धारण कर लेते हैं। उनको वस्त्र, भोजन, अलंकार, वाद्य आदि भौतिक सामग्री के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वे जिन वस्तुओं का स्मरण करते हैं, वे वस्तुएँ वहाँ हाजिर हो जाती हैं। विशिष्ट रचनाओं से युक्त उनके विमानों की दीवार के ऊपर सतत नाटक चलते रहते हैं । एक नाटक कम से कम दो हज़ार वर्ष तक चलता है। इसके अलावा वहाँ अनेक रमणीय क्रीडांगण बाग-बगीचे और तालाब होते हैं। वैक्रिय शरीर धारण करनेवाले ये देव अपनी इच्छानुसार रूप बदल सकते हैं, जहाँ चाहें जा सकते हैं । उनको भव प्रत्ययिक अवधि या विभंगज्ञान होता है। इस प्रकार भौतिक सुख की मस्ती में मशगूल हुए देव यदि सावधान न रहें तो विषय-कषाय के जाल में फँसकर पुनः दुःख की
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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