SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सकलतीर्थ वंदना २७३ लिए अद्वितीय आलंबन बनते हैं। पंचम काल में यहाँ प्रभु साक्षात् विद्यमान नहीं हैं इसीलिए महापुरुषों ने कहा है, 'पंचम काले जिनबिंब, जिनागम भवियण को आधारा...' पाँचवें आरे में जब साक्षात् विचरते अरिहंत परमात्मा का विरह होता है, तब जिनबिंब एवं जिनागम ही भव्य जीवों के लिए तारक बनते हैं । इसीलिए उन जिनबिबों को धारण करनेवाले चैत्य (मंदिर) और जिनागमों को धारण करनेवाले साधु महात्मा भी तारक होते हैं और प्रातःकाल स्मरणीय, वंदनीय बनते हैं। कहते हैं कि, 'आकृति गुणान् कथयति'; प्रभु की सौम्याकृति, निर्विकारी नेत्र, पद्मासनस्थ मुद्रा आदि उनके निर्विकारी आनंद का बयान करते हैं। इसीलिए उनका दर्शन साधक के विकारों को शांत कर, उसे परम प्रमोद प्राप्त करवाता है। इस तरह प्रातःकाल में स्थापना निक्षेप में रहे परमात्मा का स्मरण साधक में एक नई ऊर्जा उत्पन्न करता है। प्रभु की मूर्ति के दर्शन करते हुए साधक को जिस अलौकिक आनंद का अनुभव होता है, उसका वर्णन करते हुए महामहोपाध्यायजी भगवंत 'प्रतिमाशतक' नाम के ग्रंथ रत्न में बताते हैं कि, जो साधक एकाग्र भाव से प्रभु का दर्शन करता है, शुद्ध मन से प्रभु का ध्यान करता है उसे, स्वयं भगवान ही सामने प्रगट हो गए हों, हृदय में प्रवेश कर रहे हों, अपने साथ मधुर शब्दों से बातचीत कर रहे हों और अपने अंग-अंग में छा गए हों, ऐसा अनुभव होता है। ऐसा अनुभव करने के लिए परमात्मारूप से परमात्मा का दर्शन करना चाहिए। प्रारंभिक भूमिका में तो साधक 'यह परमात्मा की मूर्ति है' ऐसा मानकर जिनबिंब का दर्शन करता है; परन्तु बार बार भावपूर्ण
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy