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सूत्र संवेदना-५
हदय से उनका दर्शन, वंदन, कीर्तन आदि करते हुए उसका आध्यात्मिक विकास होता है। जिसके कारण दर्शन करते हुए यह परमात्मा की मूर्ति है ऐसा नहीं, परन्तु यह साक्षात् परमात्मा ही है' ऐसा महसूस होता है। इस तरह साधक जैसे-जैसे परमात्मा के साथ एकाकार होता है, वैसे वैसे प्रतिमा के दर्शन करते हुए 'यह मैं ही हूँ' ऐसा प्रतीत होने लगता है।
परमात्मा की प्रतिमा के दर्शन करते-करते साधक को 'मैं कौन हूँ' इस प्रश्न का वास्तविक उत्तर मिलता है। अपने सहज आनंद स्वरूप का ज्ञान होने पर उसे स्वरूप प्राप्ति की तीव्र लगन लगती है। यही तो साधक के जीवन का लक्ष्य है। इसलिए प्रातःकाल के प्रतिक्रमण के छ: आवश्यक पूर्ण होने के बाद अन्य दैनिक कार्यों का प्रारंभ करने से पहले स्वरूप के साथ अनुसंधान करके अपने जीवन के लक्ष्य को याद करके साधक इस सूत्र द्वारा सकल तीर्थों की वंदना करता है।
ऐसा लगता है कि मुनि श्री जीवविजयजी महाराज ने इस सूत्र की रचना प्राचीन गाथाओं के आधार पर की होगी। उन्होंने इस सूत्र के उपरांत प्रज्ञापनसूत्र, जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति तथा जीवविचार का बालावबोध
और छ: कर्मग्रंथों पर गुजराती में टीका भी रची है। उनके जीवन काल के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि इस सूत्र की रचना विक्रम की उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में हुई होगी। गाथा के अनुसार विषयानुक्रमः
इस सूत्र के मुख्य दो भाग कर सकते हैं : १. स्थावर तीर्थों की वंदना, २. जंगम तीर्थों की वंदना। उसके उपविभाग निम्नवत् हैं -