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________________ २७० सूत्र संवेदना-५ गाथा: इच्चाई महासईओ, जयंति अकलंक-सील-कलिआओ । अज्ज वि वज्जइ जासिं, जस-पडहो तिहुअणे सयले ।।१३।। संस्कृतः इत्यादयः महासत्यः, जयन्ति अकलङ्क-शीलकलिताः । अद्य अपि वाद्यते यासां, यशः पटहः त्रिभुवने सकले ।।१३।। शब्दार्थ : उपर बताई गई तथा अन्य अनेक निष्कलंक शील को धारण करनेवाली और समग्र त्रिभुवन में प्रसिद्ध यशवाली महासतियाँ जय को प्राप्त करें । विशेषार्थ : आत्मा के लिए सबसे अधिक पीड़ादायक दोष राग है। इस राग के कारण ही जगत् के जीव उल्कापात मचाते हैं। अश्लील व्यवहार, दुराचार का सेवन, मन-वचन-काया की दुष्ट प्रवृत्तियाँ - ये सभी राग रूप महादोष के कारण ही उठते हैं। राग के कारण ही अनंतगुण संपन्न आत्मा निंदा का पात्र बनती है। वीतराग की उपासिका महासतियाँ इस राग को भलीभाँति पहचानती हैं। उसका संपूर्णता से नाश करने का यत्न करती हैं। जब तक उसका नाश नहीं करतीं, तब तक उनको बाँधे रखने के लिए पतिव्रत को धारण करती हैं। इस व्रत को वे सैंकड़ों संकटों में भी सुरक्षित रखती हैं और प्राणांत तक अपने शील को अखंड रखती हैं। शीलव्रत को कलंक लगे ऐसी एक भी प्रवृत्ति, एक भी व्यवहार, एक भी चेष्टा या विचार तक नहीं करतीं। जिस प्रकार कमल पानी और कीचड़ से अलिप्त रहता है वैसे ही ये
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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