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आयरिय-उवज्झाए सूत्र सन
१५ क्षमापना के क्रम में पहले आचार्य भगवंत तथा बाद में उपाध्याय भगवंत आदि का क्रम रखा गया है, ऐसा लगता है।
जिज्ञासा : शिष्यों का समावेश कुल, गण और साधार्मिक में ही हो जाता हैं, फिर भी शिष्यों का उल्लेख अलग से क्यों किया गया है और कुल, गण और संघ से पहले उनसे क्यों क्षमा माँगी गई है ?
तृप्ति : यह सच है कि शिष्यों का समावेश कुल, गण आदि में हो जाता है, तो भी शिष्य का हित करने का उत्तरदायित्व गुरु भगवंतों का होता है। शिष्य की स्खलना को अटकाने के लिए सारणादि करते समय अगर गुरु भी आवेश में आ जाए तो उसकी विशेष प्रकार से क्षमापना करनी अनिवार्य है । इसलिए शिष्य का अलग से और पहले उल्लेख किया गया होगा, ऐसा प्रतीत होता है, फिर भी इस विषय में विशेषज्ञ सोचें।
जिज्ञासा : आचार्यादि गुणवानों से क्षमा माँगी है, उनको क्षमा क्यों नहीं दी?
तृप्ति : गुणवान् आत्माएँ कर्माधीन जीवों की स्थिति सम्यग् प्रकार से समझती हैं, जिससे उनको ऐसे जीवों के प्रति द्वेषादि होने की संभावना नहीं रहती, इसलिए उनको क्षमा देने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती ।
जिज्ञासा : धम्म शब्द से यहाँ ‘सभी जीवों को अपने समान मानना' उस रूप धर्म का ही स्वीकार क्यों किया ?
तृप्ति : यह सूत्र क्षमापना करने के लिए है और सभी जीवों के साथ क्षमापना तभी हो सकती है जब हम सभी जीवों को अपने तुल्य मानें । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का परिणाम समता का मूल है, मैत्री भाव का बीज है, सभी धर्मों का साधन है, इसलिए यहाँ धर्म शब्द से यह