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________________ २६६ सूत्र संवेदना-५ ३२ (८५) पूष्फचूला य - पुष्पचूला दुनिया में पाप करनेवाले तो बहुत हैं, परन्तु सबके समक्ष निःशल्य भाव से हिचकिचाए बिना अपने पाप का प्रायश्चित्त करनेवाले विरल ही होते हैं। ऐसा विरल व्यक्तित्व महासती पुष्पचूला का था । पुष्पचूला और पुष्पचूल दोनों जुड़वा भाई-बहन थे । उनका आपस में अत्यधिक प्रेम था, अतः उनके पिता ने दोनों का विवाह करवा दिया। उनकी माता को यह अघटित घटना देखकर खूब आघात लगा। संसार की विडंबनाओं से मुक्त होने के लिए उन्होंने संयम स्वीकार किया और कालक्रम से वे स्वर्ग में गए । पुष्पचूला को प्रतिबोधित करने के लिए उन्होंने उनको स्वर्ग-नरक का स्वप्न दिखाया। आचार्य अर्णिकापुत्र ने श्रुतानुसार स्वर्ग-नरक का हूबहू वर्णन करके पुष्पचूला रानी को धर्म में स्थिर किया। पुष्पचूला को संसार के बंधन से छूटने के लिए संयम लेने की तीव्र भावना हुई। आचार्यश्री ने दीक्षा लेने से पूर्व, पापों की आलोचना कर प्रायश्चित्त करने को कहा। तब पुष्पचूला ने गुरुवचन से अत्यंत निःशल्य बनकर भरी सभा में अपने सभी पापों की आलोचना करके अर्णिकापुत्र आचार्य के पास दीक्षा ली। एक बार उस देश में दुष्काल पड़ा । बहुत से साधू ने गुर्वाज्ञा से दूसरे स्थान पर जाने के लिए विहार किया, परन्तु वृद्धावस्था के कारण अर्णिकापुत्र आचार्य ने वहीं स्थिरवास किया। उत्सर्ग अपवाद को जाननेवाली पुष्पचूला साध्वीजी आहार-पानी लाने द्वारा कमज़ोर गीतार्थ आचार्य भगवंत की भक्ति करने लगीं। गुरुभक्ति के उत्तम परिणाम में मग्न उनको केवलज्ञान प्राप्त हुआ। जब तक आचार्य भगवंत को इसका ज्ञान नहीं था तब तक केवली होने के बावजूद भी उन्होंने उनकी अखंड
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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