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भरहेसर-बाहुबली सज्झाय
२६३ साथ चारित्र लेकर शत्रुजय पर अनशन कर पाँचवें देवलोक में गई। वहाँ से च्युत होकर मोक्ष जाएँगी।
द्रौपदीजी की महानता तो जगत् प्रसिद्ध है, परन्तु ऐसी महान आत्मा भी पूर्व में हुई भूल के कारण कर्म की विडंबना का भोग बनीं, यह विचारणीय है। द्रौपदी ने पूर्व के किसी भव में एक बार साधु-भगवंत को कड़वी लौकी (तुंबी) की सब्जी दी थी, जिसके कारण वह मरकर छट्ठीं नारकी में गईं। वहाँ से मरकर मत्स्य बनी; वहाँ से मरकर सातवीं नारकी में गईं, फिर मत्स्य बनी। इस प्रकार सात बार नरक गमन और मछली के भव में घूमने के बाद वह अंगारे जैसी स्पर्शवाली श्रेष्ठी कन्या बनीं। वहाँ कोई पुरुष उनका स्पर्श करने को तैयार नहीं था। आखिर में दुःखगर्भित वैराग्य से उन्होंने दीक्षा ली और गुरु की इच्छा के विरुद्ध तप करने लगी। एक दिन पाँच पुरुषों के साथ एक गणिका को देखकर उन्होंने नियाणा किया कि मैं भी पाँच पतिवाली बनें। परिणाम स्वरूप द्रौपदी के भव में जब उन्होंने राधावेध सिद्ध किए हुए अर्जुन के गले में वरमाला पहनाई तब बाकी के चारों भाइयों के गले में भी वरमाला पड़ी। कर्मानुसार द्रौपदी पांडवों की पत्नी बनी ।
"हे महासती ! अत्यंत कठोर संयोग में भी शील को सुरक्षित रखनेवाली आप धन्य हैं, पाँच पति होने के बावजूद हमेशा मन में एक ही पति को स्मरण में रखकर सतीव्रत को टिकाए रखना आसान नहीं है। ऐसे दुष्कर कार्य को सिद्ध करनेवाली हे द्रौपदीजी
आपको कोटि-कोटि वंदन।" ३० (८३) धारणी - श्रीमती धारिणी शील की रक्षा के लिए प्राण भी न्योच्छावर कर दे, वहीं सच्ची