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________________ २६२ सूत्र संवेदना-५ बड़े अरमानों से बड़ा किया गया यह पुत्र, श्री नेमिनाथ प्रभु की वाणी सुनकर युवावस्था में दीक्षा लेने को तत्पर हुआ। तब देवकी माता ने उल्लासपूर्ण उत्सव किया और गजसुकुमार को सीख दी कि - 'मुझने तजी ने वीरा, अवर मात न कीजे रे...' 'हे वीर पुत्र ! अब तुम ऐसा जीवन जीना कि तुम्हें दूसरा जन्म ही न लेना पड़े। अब तुम किसी अन्य को माँ मत बनाना।' ऐसा वरदान देकर वह पुत्र के हित की चिंता करनेवाली सच्ची 'माता' बनी । देवकी माता के रग-रग में कैसे संस्कार होंगे कि आठ में से सात पुत्र तो तद्भव मोक्षगामी हो गए और आठवें कृष्ण वासुदेव तीर्थंकर पद को पाकर मोक्ष में जाएँगे। देवकीजी ने स्वयं भी श्री नेमिनाथ प्रभु से बारह व्रत लेकर उनका शुद्ध पालन कर आत्मकल्याण किया। यहाँ से वे देवलोक में गईं, वहाँ से वे च्युत होकर, मनुष्य भव प्राप्त कर मोक्ष में जाएँगी। "जिसके ऊपर अत्यंत मोह था उसके मोह को तोड़कर उसे भी सच्ची हितशिक्षा देकर हित के मार्ग पर चलानेवाली हे माता ! आपको कोटि-कोटि वंदन!” २९ (८२) दोवइ - द्रौपदी पांचाल नरेश द्रुपद राजा की पुत्री और पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदीजी क्रम के अनुसार जब जिस पति के साथ रहती, तब अन्य भाईयों के साथ भाई जैसा व्यवहार करने का अति दुष्कर कार्य करती। एक बार धातकीखंड के पद्मोत्तर राजा देव की सहायता से उनका अपहरण कर ले गया, तब उन्होंने छट्ठ-अट्ठम कर शील का अडिग पालन किया। इसके बाद दूसरे भी अनेक कष्टों के बीच उन्होंने शील को सुरक्षित रखा और पति तथा सास के अनुसरण का उत्तम आदर्श प्रस्तुत किया। वे पांडवों के
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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