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________________ आयरिय-उवज्झाए सूत्र प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि वे मेरा यह संकल्प अखंडित रखें।" सव्वस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहिअनियचित्तो । सव्वं खमावइत्ता खमामि सव्वस्स अहयं पि ।।३।। भावपूर्वक धर्म में मन स्थिर करके मैं चौदह राजलोक के सभी जीवों को याद करके, उनके प्रति किये गए सभी अपराधों के लिए क्षमा माँगता हूँ और मेरे प्रति उनसे भी हुए अपराधों को क्षमा करता हूँ । जीव जब तक धर्म नहीं समझता, तब तक उसकी संकुचित वृत्ति के कारण वह दूसरों के सुख-दुःख का ज़रा भी विचार न करते हुए मात्र अपने ही सुख-दुःख के बारे में सोचता है, परन्तु जब वह धर्म समझता है, तब उसके विशाल हृदय में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' - की भावना अर्थात् ‘सभी जीव मेरे जैसे ही है' ऐसी भावना प्रकट होती है । जिसके फलस्वरूप उसके मन में, 'जैसे मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता और सुख अच्छा लगता है वैसे जगत् के प्रत्येक जीवों को दुःख अच्छा नहीं लगता और सुख अच्छा लगता है ऐसी समझ आती है । सभी जीवों के सुख-दुःख की विचारणा से उसकी वृत्ति से 'मैं' और 'मेरा' ऐसी संकुचितता मिट जाती है, जिसके कारण किसी भी जीव को अपने द्वारा दुःख न हो, इसके लिए वह सावधान बनता है । ऐसी वृत्ति होने के बावजूद भी संसार में रहनेवाले धर्मात्मा को अनिच्छा से भी पर-पीडा की प्रवृत्ति करनी पड़ती है । इससे व्यथित हुआ धर्मात्मा सभी जीवों के प्रति खुद से हुए अपराधों को याद करके क्षमा माँगता है । संसार में जीवों का एक-दूसरे के साथ संपर्क होने के कारण अन्य जीवों से भी धर्मात्मा को पीड़ा होने की संभावना रहती है । तब
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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