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________________ सूत्र संवेदना-५ होकर, अविचारक अवस्था में, दूसरों की बातों में आकर यदि किसी ने अपने प्रति अपराध किया हो, तो उन संघ के सदस्यों को भाई मानकर, धर्म के प्रेरक मानकर, उनके अपराध को भी माफ करना चाहिए । उनकी भूल को सदा के लिए भूल जाना चाहिए। चित्त में कहीं भी उनके प्रति लेश मात्र भी असद्भाव नहीं रखना चाहिए । इस प्रकार श्री संघ की भूलों को क्षमा करके श्री संघ के साथ आदरणीय व्यवहार करना चाहिए । प्रभु की आज्ञा का सार इतना ही है कि चित्त को सदा निर्मल रखें इसलिए जैनशासन में क्षमा माँगना और क्षमा देना; दोनों कार्य का विधान है । ऐसा करने से मैत्री, प्रमोद आदि भावों की वृद्धि होती है, मन निर्मल बनता है और उभयपक्ष में वैर भाव का नाश होता है । क्षमा माँगने में जैसे मानादि भावों को दूर करना पड़ता है, वैसे ही क्षमा देने में द्वेष आदि भावों को दूर करना पड़ता है, इसलिए आत्मशुद्धि के इच्छुक साधक के लिए ये दोनों कर्तव्य अत्यंत आवश्यक हैं । यह गाथा बोलते समय साधक श्रमण संघ को स्मृति में लाकर, अत्यंत आदरपूर्वक दो हाथ जोड़कर, मस्तक झुकाकर श्री संघ से कहता है, 'प्रमादादि दोषों के वशीभूत होकर मैंने आपके प्रति जो अपराध किए हैं, आज उन सभी को याद करके, मैं आप से बार-बार क्षमा याचना करता हूँ । पुनः ऐसी भूल न हो इसलिए सावधान रहूँगा । आप जैसे पूज्य से भी भूल हुई हो तो मैं भी आपके अपराध को भूलकर, पुनः एक अच्छे मित्र की तरह आपके साथ व्यवहार करने का संकल्प करता हूँ।
SR No.006128
Book TitleSutra Samvedana Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2015
Total Pages346
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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