________________
२४४
सूत्र संवेदना-५ ससुरालवाले बौद्ध धर्मी थे इसलिए वे सुभद्रा को अनेक प्रकार से सताने लगे। इसके बावजूद सुभद्राजी अपने धर्म से ज़रा भी विचलित न हुईं। एक बार एक मुनि के आँख में कंकड़ गिर जाने से अत्यंत पीड़ा हो रही थी । सुभद्राजी ने अपनी जीभ से मुनि भगवंत की आँखो का कंकड़ निकाल दिया; तब उनकी बिन्दी का कुमकुम मुनि के मस्तक पर लग गया। सास ने यह देखकर सुभद्रा के ऊपर कलंक लगाया।
निर्दोष साधु की वैयावच्च करते हुए सती के सिर पर कलंक लगा। जैनशासन की निंदा तथा अपने ऊपर लगा कलंक दूर करने के लिए सुभद्रा ने अन्न-जल का त्याग कर दिया। पूर्व में किए गए पापों का यह फल है ऐसा मानकर लोकनिंदा को सहन किया। धर्म का रक्षण करनेवालों की रक्षा करने के लिए स्वयं देवता भी तत्पर रहते हैं । शासनदेवता उनकी सहायता के लिए आए। उन्होंने चंपानगरी के चारों द्वारों को बंद कर दिया। द्वार तोड़ने का प्रयत्न भी निष्फल रहा। नगर में हाहाकार मच गया। तब आकाशवाणी हुई, 'यदि कोई सती स्त्री कच्चे सूत के धागे से आटा छानने की चलनी से कुएँ से पानी निकालकर दरवाजे के ऊपर छिड़केगी, तो ही दरवाजे खुलेंगे ।'
गाँव की अनेक स्त्रियों ने प्रयत्न किया, परन्तु निष्फल रहीं । सुभद्रा ने सास से द्वार खोलने की आज्ञा माँगी। नगरजनों की नज़र के सामने उन्होंने नवकार का स्मरण करके चलनी से पानी निकाला और तीनों दरवाजों पर छिड़क दिया। दरवाजे खुल गए। चौथा दरवाजा खोलने के लिए किसी दूसरे को आना हो तो आ सकते हो, ऐसा कहकर उसे बाकी रखा। इस प्रसंग से जैन धर्म का - शीलधर्म का जयजयकार हुआ । आखिर में दीक्षा लेकर वे मोक्ष में गईं ।